________________
२३८)
सिद्धान्तसारः
(९. २१८
सच्चारित्रवतः पुंसः संवरो जायते क्षणात् । परीषहजयेनासौ दशधा धर्मकारणः ॥२१८ सुनिर्जरायुतस्यैष संवरो जायते परः । ये केचिद्धतवः सन्ति संवरस्य विधायिनः ॥ २१९ तपसो निर्जरायास्तान्कियतो निगदाम्यहम् । धाष्टर्यमेवमिदं सर्व मदीयं यज्जिनागमे ॥ २२० इदं करोमि नो वेदमिति वाचो निवर्तनम् । उक्तं युक्तमयुक्तं वा मदीयं मुनिपुङ्गवाः ॥ २२१ श्रुत्वा भवन्तु सर्वेऽपि सर्वदेवाधिकक्षमाः। आगमोऽनन्तपर्यायः कथ्यतेऽनन्तसद्गुणः ॥ २२२ श्रीमत्समन्तभद्रादिगणेशन तु मादृशः । पद्मसेनादयो ये तु श्रीमेदार्यान्वये परम् ॥ २२३
बभूवुस्तत्प्रसादेन मच्चेतोऽप्यत्र भक्तिमत् ।
उनको भावसंवर कहते हैं । जो ईर्यासमित्यादिक समितियोंको पालता है, मनोगुप्त्यादिक गुप्तियोंका धारक है, अनित्यादिक बारह अनुप्रेक्षाओंमें तत्पर होता है, तथा जो सम्यक्चारित्रको धारण करता है, ऐसे पुरुषको- यतिराजको तत्काल संवर होता है उनके पास नये कर्म नहीं आते हैं। यह संवर परीषहजयसे होता है तथा उत्तम क्षमादिक दशधर्मोंका पालन करनेसे होता है। तथा जो अविपाका निर्जरासे युक्त है ऐसे मुनीश्वरको उत्कृष्ट संवर प्राप्त होता है ॥२१८॥
• संवरको उत्पन्न करनेवाले जो कोई हेतु हैं, तथा निर्जराको करनेवाले जो तपश्चरण हेतु रूप हैं उनका मैं कितना वर्णन कर सकूँगा । अर्थात् संवरके और निर्जराके समग्र कारणोंका वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं ॥ २१९॥
जो जिनागममें है, वही मैंने कहा है । अतः मेरा यह कहना सब हृदयमें धारण करना चाहिये । उसमें मैं यह हृदयमें धारण करूंगा और यह नहीं करूंगा ऐसा भाषण बोलना छोड देना चाहिये ॥ २२० ॥
(मुनिश्रेष्ठोंके प्रति ग्रंथकारकी क्षमा याचना । )- मेरा युक्तियुक्त वचन सुनकर हे मुनिश्रेष्ठ ! आप सब सदैव मुझपर अधिक क्षमा धारण करें । अर्थात् मैं आपसे क्षमा याचना करता हूं क्योंकि मेरे वचन सदोषभी होंगे और निर्दोषभी होंगे मैं कुछ नहीं समझता हूं ॥ २२१॥
( समन्तभद्राचार्यकी प्रशंसा।)- अनंतगुणवाले श्रीसमन्तभद्र गणधरसे अनंतपर्यायोंका प्रतिपादन करनेवाला आगम कहा गया है परंतु मुझ सरीखोंके द्वारा ऐसा विशाल आगम नहीं कहा जायगा ।। २२२ ॥
( पद्मसेनादिकाचार्यों में मेरा मन भक्तियुक्त है। )- महावीरप्रभुके श्रीमेदार्य नामके गणधरकी गुरुपरंपरामें पद्मसेनादिक आचार्य हुए हैं। उनकी कृपासे मेरा मनभी इस आगममें भक्तियुक्त हुआ है ।। २२३ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org