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________________ -९. २१७) सिद्धान्तसारः (२३७ स प्रदेशगतो बन्धः प्रदेशः परिपठ्यते । यो विशेषोऽस्य बन्धस्य स श्रीसर्वज्ञगोचरः ॥ २१३ स कथं कथ्यते बन्धो नकोटेन मयाधुना । आस्रवस्य निरोधोऽयं संवरः स मतः सताम् ॥२१४ द्रव्यभावप्रभेदेन सोऽपि द्वेषा भवेदिह । संसारकनिमित्तानां क्रियाणां विनिवर्तनम् ॥ २१५ भावसंवरमाख्यान्ति मुनीन्द्राः कृतसंवराः । तन्निरोधे च तत्पूर्वकर्मपुद्गलविच्युतिः ॥ २१६ आत्मनस्तु स विज्ञेयो यतीन्द्रर्द्रव्यसंवरः । समितस्य च गुप्तस्यानुप्रेक्षानुरतस्य च ॥ २१७ प्रगट न होने देना है । इत्यादि । संपूर्ण आत्मप्रदेशोंमें अनंतानंत सूक्ष्म कर्मप्रदेशका सर्व भवोंमें एक क्षेत्रावगाही जो योगविशेषोंसे बंध होता है उसे प्रदेशबंध कहते हैं । योगविशेषसे आत्मा कर्मोंको ग्रहण करता है । वे कर्म सब सूक्ष्मही होते हैं, उन कर्मके स्कन्धोंमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और चार स्पर्श-- शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष ऐसे चार होते हैं। ये कर्मस्कंध आठ प्रकारोंके कर्म प्रकृतियोंके योग्य रहते हैं ।। २१२--२१३ ।। इस प्रदेशबंधका जो विशेष है वह सर्वज्ञका विषय है । मैं मनुष्यकीटक हूं, मुझसे वह बंध इस समय छद्मस्थावस्थामें-- अज्ञानावस्थामें कैसा कहा जायगा ? तात्पर्य यह है कि ये, चार प्रकारके बंध अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानियोंको प्रत्यक्ष प्रमाणके विषय हैं अर्थात् इनका स्वरूप वे प्रत्यक्ष ज्ञानसे जानते हैं । और उन्होंने जो आगम कहा है, उससे इन बंधके स्वरूपका ज्ञान किया जाता है अर्थात् अनुमानसे उनका स्वरूप जाना जाता है ॥ २१४ ॥ ( संक्षेपसे संवरवर्णन।)- आस्रवका जो निरोध है, वह सज्जनोंको मान्य ऐसा संवर नामका पदार्थ है । इसके यहां द्रव्यसंवर और भावसंवर ऐसे दो भेद हैं । स्पष्टीकरण- नवीन कर्मका आत्मामें आगमन होना आस्रवतत्त्व है और वह आगमन जिससे रुकता है ऐसे तत्त्वका नाम संवरतत्त्व है। यह संवरतत्त्व आस्रवका प्रतिपक्षी है, इसलिये आस्रवके लक्षणसे संवरका लक्षण बिलकुल उलटा है ।। २१५ ॥ ( भावसंवरका स्वरूप । )- संसारके मुख्यनिमित्त ऐसी जो मन वचन शरीरोंकी प्रवृत्तियां- चेष्टायें होती हैं उनका निवारण करनेवाला जो आत्माका निर्मल परिणाम उसका नाम भावसंवर है, ऐसा जिन्होंने नये कर्मोंका निरोध किया है ऐसे मुनीन्द्र कहते हैं ।। २१६ ॥ (द्रव्यसंवरका स्वरूप । )- उनके निरोधसे अर्थात् नया कर्म जिनसे आता है ऐसी मनवचन शरीरकी चेष्टाओंका निरोध करनेसे तत्पूर्वक जो कर्मका आना होता था वहभी रुक जाता है । यतीन्द्रोंने उसको द्रव्यसंवर जाना है ।। २१७ ॥ नये कर्म आत्मामें आनेका रुक जाना द्रव्यसंवर है, मनवचनशरीरकी जिन चेष्टाओंसे कर्म आता था उनका आगमन न होने देनेवाले जो आत्मामें निर्मल समित्यादिक परिणाम होते हैं १ आ. प्रदेशपरिकल्पनम् २ आ. श्रीसर्वज्ञस्य गोचरः ३ आ. परस्य च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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