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सिद्धान्तसारः
(९. २१०
द्वे एव वेदनीयस्य मोहस्याप्यष्टविंशतिः । चतस्रश्चायुषो ज्ञेया नाम्नस्त्रिनवतिः पुनः ॥ २१० द्वे गोत्रस्य पुनश्च स्तोऽन्तराये पञ्च' तामताः। कालस्यावस्थितिस्तेषां स्थितिमाहुजिनेश्वराः।।२११ सा च सिद्धान्ततो ज्ञेया नैवात्र ग्रन्थगौरवात् । कर्मणां यो विपाकस्तु सोऽनुभागो निगद्यते ॥ २१२
निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगृद्धि । वेदनीयके सातवेदनीय और असातवेदनीय। मोहनीयके मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानके चार क्रोधादिक, प्रत्याख्यानके तथा संज्वलनके चार क्रोधादिक हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, ऐसे मोहनीयके अठ्ठावीस भेद हैं। आयुके नरकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु और देवायु ऐसे चार भेद हैं। नामकर्मके गति, आदिक तिरानवे भेद हैं। उच्चगोत्र, नीचगोत्र ऐसे गोत्रके दो भेद हैं। अन्तरायके दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ऐसे पांच भेद हैं। इन एकसौ अडतालीस प्रकृतियोंका स्पष्टीकरण ग्रंथकारने ग्रंथगौरवके भयसे नहीं किया है। उनका खुलासा सिद्धांतग्रंथों में किया है। वहांसे जानना चाहिये ॥ २०९-२१० ॥
( स्थितीबंधका स्वरूप।)- एकसौ अडतालीस कर्म कछ मर्यादित कालतक आत्मामें रहते हैं, उनका रहना स्थितिबंध है। स्थितिके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे भेद हैं: जिनका सविस्तर निरूपण आगमग्रंथसे जानना चाहिये। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय ऐसे चार कर्मोंका स्थितिबंध तीस कोटिकोटि सागरोपमका है। मोहनीयका सत्तर कोटिकोटि सागरोपम स्थितिबंध है। नामकर्मका वीस कोटिकोटि सागरोपम है। गोत्रकर्मका वीस कोटिकोटि सागरोपम है और अन्तरायका तीस कोटिकोटि सागरोपमका है । यह उत्कृष्ट स्थितिबंध कहा है। जो कर्म आत्मामें बंध जाता है वह आबाधिकालको छोडकर अपना फल अपनी स्थिति जितनी कालकी है उतने कालतक आत्माको देता है। जघन्य स्थितिबंध-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी जघन्य स्थिति सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्तकी है। मोहनीयकी अनिवृत्ति बादर साम्पराय गुणस्थानमें अन्तमुहूर्तकी है। आयुकी संख्यातवर्षवाले तिर्यंच और मनुष्योंमें जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्तकी है । वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्तकी है और उसका बंध सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होता है । नामगोत्रकी दशमें गुणस्थानमें आठ मुहूर्तकी जघन्य स्थिति है। मध्यमस्थितिबंध असंख्य प्रकारका है आगममें उसका खुलासा है, वहांसे समझ लेना चाहिये । ग्रंथगौरव होगा इसलिए यहां नहीं लिखा है ॥ २११॥ ( सर्वार्थसिद्धिटीका अध्याय आठवां )
( अनुभागबंध और प्रदेशबंध। ) - विशिष्ट और नाना प्रकारोंका जो फलानुभव आत्माको कर्मसे प्राप्त होता है उसको अनुभागबंध कहते हैं और वह कर्मोंका जैसा नाम है उसके अनुसार होता है, जैसा ज्ञानावरणका फल ज्ञानाभावरूप होता है, दर्शनावरणका फल दर्शनशक्तिको
१ आ. द्वे गोत्रस्य च पञ्चैव ह्यन्तरायाश्रिता मताः
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