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________________ -९. २०५) सिद्धान्तसारः (२३५ आदत्ते स्म यतो बन्धः सर्वबन्धविजितैः । अहस्तोऽपि स गृह्णाति तानायुःकर्मयोगतः ॥२०५ जठराग्निवशाद्यद्वदाहारमुपढ़ौकते' । आद्यः प्रकृतिबन्धोऽसौ द्वितीयः स्थितिरिष्यते ॥२०६ अनुभागस्तृतीयश्च प्रादेशादिश्चतुर्थकः । स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता सा द्वेधा कथिता जिनैः ॥२०७ मूलोत्तरप्रभेदेन गुडादौ मधुरादिवत् । ज्ञानावृत्यादिभेदेन मूलप्रकृतिरष्टधा ॥ २०८ शतमष्टाधिकं तस्माच्चत्वारिंशत्तदुत्तरा । पञ्च ज्ञानावृतेः सन्ति नवैता दर्शनावृतेः॥ २०९ ऐसा मानना योग्य है। जैसा वस्तुस्वरूप है वैसाही उसको जानना सम्यग्ज्ञान है। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषायोंसे आत्मा गीला होकर सर्व भवमें तीव्रमन्दमध्यादि योगविशेषोंसे सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही ऐसे अनंतानंत प्रदेशयुक्त पुद्गलोंके स्कंध, जो कि कर्मपरिणतियोग्य हैं, उनके साथ अविभागरूपसे मिल जाता है-संयुक्त होता है ऐसी आत्माकी जो अवस्था होती है उसको बंध कहना चाहिये । २०५ ॥ ( सर्वार्थसिद्धिटीका सकषायत्वात् सूत्र ) जैसे लोग जठराग्निकी तीव्रमन्दतादिकोंके अनुरूप आहार ग्रहण करते हैं, वैसे यह आत्मा हातके बिनाही आयुष्यके संबंधसे युक्त होकर उन कर्मयोग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है ॥ २०६ ॥ ( बंधके भेद। )- पहला प्रकृतिबंध, दूसरा स्थितिबंध, तीसरा अनुभागबंध और चौथा प्रदेशबंध है ॥ २०७॥ स्पष्टीकरण - प्रकृति शब्दका अर्थ ' स्वभाव' है। जैसे निम्बका स्वभाव कटुक है। गुडका स्वभाव मधुर है। वैसे ज्ञानावरणादिक आठ कर्मोंके स्वभाव इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणका स्वभाव पदार्थोंका बोध नही होने देना। दर्शनावरण- पदार्थोंका अनालोचन अर्थात् पदार्थ है ऐसा सामान्य अवलोकनभी नहीं होने देनेवाला स्वभाव धारण करना। वेदनीय-सुख दुःखका अनुभव देनेका स्वभाव वेदनीयका है। दर्शनमोहका स्वभाव तत्त्वार्थमें अश्रद्धा उत्पन्न करना है। चारित्रमोहका स्वभाव असंयम उत्पन्न करनेवाला है। आयुष्यका स्वभाव भवधारण है अर्थात् जीवको जो मनुष्यादि अवस्था प्राप्त होती है उसमें कुछ कालतक आत्माको रोकना स्वभाव है। नारकी, पश, मनष्य, देव ऐसे नाम निर्माण करनेका स्वभाव नामकर्मका है। यह उच्च है, यह नीच है, ऐसा कहलानेवाला गोत्रका स्वभाव है। दानलाभादिकमें विघ्न करना अन्तरायका स्वभाव है। यह प्रकृतिबंध मूलप्रकृतिबंध और उत्तरप्रकृतिबंध ऐसे दो प्रकारका है। जैसे गुडका स्वभाव मधुर होता है तथा उस गुडके अनेक भेद होते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ऐसे प्रकृतिके आठ भेद हैं। और इनके उत्तरभेद एकसौ अडतालीस होते हैं ।। २०८ । ( सर्वार्थसिद्धिटीका 'आद्यो ज्ञानेति' सूत्रपरकी) ( उत्तरप्रकृति भेद। )- ज्ञानावरणादिके भेद इस प्रकार हैं- ज्ञानावरणके मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवरण और केवलज्ञानावरण ऐसे पांच भेद हैं। दर्शनावरणके चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण, निद्रा, १ आ. उपढौकितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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