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________________ २३४) सिद्धान्तसारः (९. १९८ तथ्यं न वेति सन्देहैदृष्टिः संशयगोचरा । सन्ति मिथ्यादृशः पंचाप्येते बन्धस्य हेतवः ॥ १९८ ततश्चत्वार एवामी त्रिषु सासादनादिषु । विरताविरते मिश्रं प्रमादाः सकषायकाः ॥ १९९ योगाश्च सन्ति बन्धस्य कारणं भवधारणम् । प्रमादाश्च कषायाश्च तथा योगा इति त्रयम्॥२०० प्रमत्तसंयतस्यास्ति तद्वन्धस्यककारणम् । अप्रमादादिकानां हि चतुर्णा द्वौ निवेदितौ ॥ २०१ कषायाश्च तथा योग इत्येतौ शान्तकल्मषैः । एक एवमतो योगस्त्रयाणां बन्धकारणम् ॥ २०२ शान्तक्षीणकषायैकयोगकेवलिनां पुनः । अयोगिनां न सोऽप्यस्ति बन्धहेतुः क्रिया न च ॥ २०३ अत एव महात्मानः सिद्धिभाजो भवन्त्यमी । कषायत्वादयं जीवः कर्मयोग्यांश्च पुद्गलान् ॥२०४ ये पांच प्रकारके दुरभिप्राय मिथ्यात्वबंधके कारण हैं । तथा मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग पांच बंधकारण हैं । सासादन, मिश्र और असंयत सम्यग्दृष्टि ऐसे तीन गुणस्थानोंमें मिथ्यात्व नहीं होनेसे अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये चार बंधके कारण हैं ॥ १९८-१९९ ॥ विरताविरत नामक पांचवे गुणस्थानमें मिश्र अर्थात् अविरति विरतिसे मिश्र है और बाकीके प्रमादादि तीन बंधके कारण हैं । अर्थात् प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बंधके कारण जीवको भवधारण करनेवाले हैं। प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानवाले मुनीश्वरको प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बंधकारण हैं। अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय ऐसे चार गुणस्थानवर्ती मुनियोंको योग और कषाय बंधके कारण है,। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली इन तीन गुणस्थानवति मुनीश्वरोंको एक योगही बंधका कारण है, ऐसा जिनका पापकर्म शान्त हुआ है ऐसे गणधर कहते हैं। अयोगकेवलगुणस्थानवर्ती मुनीश्वरको योग भी बंधका कारण नहीं है; क्योंकि वहां कुछभी क्रिया नहीं है । इसीलिये बंधका अभाव होनेसे ये महात्मा मुक्तिके भोगनेवाले होते हैं । २००-२०३ ॥ ( कषाय बंधका कारण है।)- जीव कषाययुक्त होनेसे कर्मरूप परिणमन को धारण करने योग्य पुद्गलोंको-विस्रसोपचयको जब ग्रहण करता है, तब बंध होता है, ऐसा बंधरहित जिनेश्वरने प्रतिपादन किया है । २०४ ।। स्पष्टीकरण- जीव कषाययुक्त कैसे होता है ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं, कि कर्मसे जीव कषाययुक्त होता है। जो कर्मरहित है उसे कषायलेप नहीं है। तथा जीव और कर्मका अनादि संबंध है। यदि यह संबंध बीच मेंही होता है तो संबंधके पूर्व में आत्मा शुद्ध था। वह अशुद्ध कैसे हो गया ? बंध आदिमान् माननेपर आत्यन्तिक शुद्धि धारण करनेवाला आत्मा सिद्ध के समान यदि है तो उसको बन्ध न होगा। अतः जीव कथंचित् मूर्तिक है और कर्मका संबंध अनादि है १ इत्येतो तीर्णकल्मषः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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