________________
-९. १९७)
सिद्धान्तसारः
(२३३
सप्तषष्टिर्मता भेदास्तथा चाज्ञानिनश्च' ते । द्वात्रिंशद्धेदभिन्नं स्याद्वैनयिकमिति ध्रुवम् ॥१९० इति मिथ्यात्वभेदाः स्युः सर्वे समुदिताः पुनः । त्रिषष्टित्रिशतीसंख्या जीवानां बन्धहेतवः ॥१९१ विपरितमथैकान्तं संशयाज्ञानिके तथा । वैनयिकं च पञ्चते भेदा वा तस्य निश्चिताः ॥१९२ ब्रह्मात्मकमिदं सर्व नित्यानित्यैकमेव च । एकान्तिकमतं' कान्तं मिथ्यात्वे बन्धकारणम् ॥१९३ यः सग्रन्थः स निर्ग्रन्थः केवली कवलाशनः । विपरीतमहामिथ्यादृष्टिरेवं वदन्त्यपि ॥ १९४ सम्यग्दर्शनसज्ज्ञानचारित्रर्मोक्ष इत्यपि । तथा न वेद स ज्ञेयो दृष्टिरज्ञानगोचरः ॥ १९५ प्रमाणनयनिर्णीतं तथा सर्वज्ञभाषितम् । ज्ञात्वापि संशयानानां तत्स्यात्सांशयिक ध्रुवम्॥१९६ देवाः सर्वेऽपि धर्माश्च सर्वशास्त्राणि तद्विदः । वैनयिकी समाः सर्वे पश्यतीति दुराशयः॥१९७
( अथवा मिथ्यात्वके पांच भेद। )- विपरीतमिथ्यात्व, एकान्तमिथ्यात्व, संशयमिथ्यात्व, अज्ञानमिथ्यात्व, विनयमिथ्यात्व ऐसे मिथ्यात्वके पांच भेद है ॥ १९२ ॥
(एकान्तमिथ्यात्वका स्वरूप।)- यह सर्व जगत् ब्रह्ममय है, जो कुछ दिखता हैं वह ब्रह्मके सिवाय कुछ नहीं है, ऐसा जो आग्रह उसे एकान्तमिथ्यात्व कहते हैं। वस्तु यही है अथवा ऐसीही है दूसरी नहीं है ऐसा जो आग्रह उसे एकान्त कहते हैं । वस्तु नित्यही है ऐसा आग्रह अथवा वस्तु अनित्यही है ऐसा आग्रह होना एकान्तमिथ्यात्व है। यह ऊपरसे कान्त- सुंदर दिखता है परंतु मिथ्यात्वप्रकृति का बंध करनेवाला है ।। १९३ ॥
( विपरीत मिथ्यात्वका स्वरूप। )- विपरीत मिथ्यादृष्टि जीव, जो परिग्रहसहित है, उसे निग्रंथ समझते हैं । केवली अनंत सुखी होनेपरभी वे कवलाहार ग्रहण करते हैं ऐसा बोलते हैं ।। १९४ ॥
( अज्ञानमिथ्यात्व । )- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षका कारण है; परंतु जो वैसा नहीं समझता है वह अज्ञानमिथ्यादृष्टि है ।। १९५ ।।
( संशयमिथ्यात्व। )- सर्वज्ञसे कहा हुआ जीवादिकतत्त्वस्वरूप प्रमाण और नयोंसे निश्चित सत्य सिद्ध हुआ है ऐसा जानकरभी मनमें संशय धारण करनेवालोंका वह निश्चयसे सांशयिक मिथ्यात्व है ॥ १९६ ॥
( वनयिक मिथ्यात्व।)- सब देव, सब धर्म, सर्व शास्त्र उनके जानकार विद्वान् ये सब समान है ऐसा समझता है। ऐसा दुष्ट अभिप्राय धारण करनेवाला वैनयिकमिथ्यात्वी समझना चाहिये ॥ १९७ ॥
१ आ. चाज्ञानिकस्य ते २ आ. नित्यत्वं वानित्यत्वमेव वा ३ आ. ऐकान्तिकमतं जैनस्तद्वन्धकान्तकारणम् ४ आ. पश्यतीह
S.S. 30
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org