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________________ -९. १४०) सिद्धान्तसारः (२२५ वानसंयमसच्छौचक्षान्तियोगानवता । भूतव्रत्त्यनुकम्पा च सर्वे सवैद्यकारणम् ॥ १३८ केवलिश्रुतसङघानां देवे धर्मे तथा पुनः । जायतेऽवर्णवादेन कर्म दर्शनमोहकम् ॥ १३९ केवली कवलाहारं गृह्णात्येष तथा पुनः । नीहारं कुरुते पश्चाद्दोषः केवलिनो मतः ॥ १४० ........................ ६ परिदेवन - संक्लेशपरिणामोंसे गुणस्मरण और गुणवर्णनपूर्वक अपने ऊपर और अन्योंके ऊपर किया गया उपकार जिसका विषय है ऐसा दया उत्पन्न करनेवाला जो रोना उसे परिदेवन कहते हैं। अन्तरंगमें क्रोधादि आवेशसे युक्त होकर यदि ऐसे दुःखोंके प्रकार स्वपरोभयमें किये जाते हैं तो वे असद्वेद्य कर्मके आस्रवके निमित्त होते हैं। मुनि अथवा वतिक उपवासादिक शास्त्रविहित कर्म करते हैं परंतु उनमें संक्लेश परिणाम नहीं है संसारदःखसे दर होनेके लिये उनसे उपवासादिक किये जाते हैं, उनके करनेपर दुःख होता है तोभी संक्लेशपरिणाम न होनेसे असवैद्यकर्मास्रव उनके आत्मामें नहीं होते हैं । पापबंध नहीं होता है। प्रत्युत महान् पुण्यास्रव होते हैं ।। १३७ ॥ ( सद्वैद्यकर्मास्रवके कारण। )- दान, संयम, शौच, शान्ति, योग, अवक्रता, भूतानुकम्पा, और व्रत्यनुकम्पा ये सब सवैद्यकर्मके कारण हैं। दान – दूसरोंपर तथा अपने परभी अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे अपने धनका त्याग करना दान है। संयम -प्राणियोंका रक्षण करनेकी प्रवृत्ति होना और इंद्रियोंको अशुभप्रवृत्तिसे रहित कर शुभ प्रवृत्तिमें लगाना। सच्छौच-लोभका त्याग करना। क्षान्ति- क्रोधादिकोंका त्याग । क्रोध, मान और मायाओंका त्याग । योग- शुभध्यान । अवक्रता- मनमें निष्कपट होना । भूतानुकम्पा- कर्मोदयसे उन उन गतियोंमे उत्पन्न हुए प्राणियोंको भूत कहते है । उन भूतोंमें दया करना अर्थात् अनुग्रह करनेकी इच्छासे आर्द्रचित्त होकर दूसरोंको होनेवाली पीडा मानो स्वतःको हो रही है ऐसी भावना होना दया है। व्रत्यनुकम्पा- अणुव्रत पालनेवाले गृहस्थ और महाव्रत धारण करनेवाले मुनिराज इनको व्रती कहते हैं । इनके ऊपर मन दयामुक्त होना ऐसी सर्व अच्छी प्रवृत्तियां जीवोंको सवैद्यकर्मास्रवके लिये कारण होती हैं। इन कार्योंसे जीव आगेके भवमें देवगतिमें तथा मनुष्यगतिमें नानाविध सुखोंको प्राप्त करता है ॥ १३८ ॥ ( दर्शनमोहकर्मके आस्रवकारण। )- केवली, श्रुत-जैनागम, संघ, इनमें दोष न होनेपरभी दोषारोपण करना केवल्यादिकोंका अवर्णवाद है। देव, धर्म - अहिंसात्मक धर्म, जो कि जैनागमका कहा हुआ है इनके ऊपर दोषारोपण करनेसे दर्शन-मोहकर्म के आस्रव उत्पन्न होते हैं। S. S. 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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