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सिद्धान्तसारः
(९. १३३
प्रशस्तस्यापि बोधस्य बाधाविरहितस्य च । दूषणं हयुपघातोऽयं मतो मतिमतामिह ॥ १३३ प्रदोषादय इत्येवं ज्ञानावृतिनिबन्धनम् ' । दर्शनावरणस्यापि भवन्ति भविनामिह ॥ १३४ तुल्येऽप्यत्र प्रदोषादौ कारणे न विरुद्वयते । ज्ञानावृतिदृगावृत्योः कार्यत्वं हि प्रदीपवत् ॥ १३५ ज्ञानस्य विषयाः स्युर्वा ज्ञानावृतिनिबन्धनम् । यथा दृग्विषयाः सर्वे दगावृतिनिबन्धनम् ॥ १३६ दुःखैकशोकसन्तापवधाक्रन्दनदेवनः । स्वपरात्मोभयस्थः स्यादसद्वेद्यं नृणामिह ॥ १३७
६ उपघात - जो ज्ञान प्रशंसनीय है और बाधारहित निर्दोष है उसकाभी नाश करनेका विचार रखकर उसको दूषण लगाना उसे मतिमान् लोक उपघात कहते हैं ॥ १३३ ॥
ये प्रदोषादिक, जो कि संसारी प्राणियोंको ज्ञानावरण कर्मके आस्रवमें कारण हैं, वेही दर्शनावरण कर्मके आस्रवमेंभी कारण हैं ॥ १३४ ॥
ये प्रदोष निह्नवादि कारण समान होनेपरभी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवरूपी कार्य होना विरुद्ध नहीं है; क्योंकि एक कारणसे अनेक कार्य सिद्ध होते हैं । जैसे एक प्रदीपसे प्रकाश मिलता है, अंधकारका नाश होता है, भय दूर होता है। उसके साहाय्यसे अध्ययन किया जाता है । ऐसे अनेक कार्य एक प्रदीपरूप कारणसे होते हैं वैसे प्रदोषादिक अनेक - ज्ञान और दर्शनके आवरणोंके आस्रवमें कारण होते हैं ॥ १३५ ।।
अथवा जब ये प्रदोषादिक ज्ञानके विषयमें होते हैं तब ज्ञानावरणके कारण होते हैं और जब दर्शन विषयके होते हैं तब दर्शनावरणके कारण होते हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ १३६ ॥
( असद्वेद्य कर्मके आस्रवके कारण। )- दुखःशोक, सन्ताप, वध, आक्रन्दन और देवन अपनेमें, दूसरोंमें और दोनोंमें करना मनुष्योंको यहां असद्वेदनीयकर्मके आस्रवके कारण होते हैं ।
१ दुःख-पीडारूप परिणामको दुःख कहते हैं ।
२ शोक- जिसने अपने ऊपर उपकार किया था उस व्यक्तिका वियोग होनेपर जो व्याकुलता उत्पन्न होती है उसे शोक कहते हैं ।
३ संताप- किसीने अपनी निंदा की, किसीने मानभंग किया, किसीके कर्कश वचन सुने ऐसे कारणोंसे चित्त कलुषित होनेसे जो पश्चात्ताप-खेद होता है उसे संताप कहते हैं ।
४ आक्रंदन- बहुत संतापसे अश्रुपात होना, प्रचुर विलाप होना इत्यादिकोंसे रुदन करना आक्रंदन हैं।
५ वध, आयुष्य, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वासका वियोग करना वध है।
१ आ. निबन्धनाः २ आ. तथा
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