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________________ २२४) सिद्धान्तसारः (९. १३३ प्रशस्तस्यापि बोधस्य बाधाविरहितस्य च । दूषणं हयुपघातोऽयं मतो मतिमतामिह ॥ १३३ प्रदोषादय इत्येवं ज्ञानावृतिनिबन्धनम् ' । दर्शनावरणस्यापि भवन्ति भविनामिह ॥ १३४ तुल्येऽप्यत्र प्रदोषादौ कारणे न विरुद्वयते । ज्ञानावृतिदृगावृत्योः कार्यत्वं हि प्रदीपवत् ॥ १३५ ज्ञानस्य विषयाः स्युर्वा ज्ञानावृतिनिबन्धनम् । यथा दृग्विषयाः सर्वे दगावृतिनिबन्धनम् ॥ १३६ दुःखैकशोकसन्तापवधाक्रन्दनदेवनः । स्वपरात्मोभयस्थः स्यादसद्वेद्यं नृणामिह ॥ १३७ ६ उपघात - जो ज्ञान प्रशंसनीय है और बाधारहित निर्दोष है उसकाभी नाश करनेका विचार रखकर उसको दूषण लगाना उसे मतिमान् लोक उपघात कहते हैं ॥ १३३ ॥ ये प्रदोषादिक, जो कि संसारी प्राणियोंको ज्ञानावरण कर्मके आस्रवमें कारण हैं, वेही दर्शनावरण कर्मके आस्रवमेंभी कारण हैं ॥ १३४ ॥ ये प्रदोष निह्नवादि कारण समान होनेपरभी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवरूपी कार्य होना विरुद्ध नहीं है; क्योंकि एक कारणसे अनेक कार्य सिद्ध होते हैं । जैसे एक प्रदीपसे प्रकाश मिलता है, अंधकारका नाश होता है, भय दूर होता है। उसके साहाय्यसे अध्ययन किया जाता है । ऐसे अनेक कार्य एक प्रदीपरूप कारणसे होते हैं वैसे प्रदोषादिक अनेक - ज्ञान और दर्शनके आवरणोंके आस्रवमें कारण होते हैं ॥ १३५ ।। अथवा जब ये प्रदोषादिक ज्ञानके विषयमें होते हैं तब ज्ञानावरणके कारण होते हैं और जब दर्शन विषयके होते हैं तब दर्शनावरणके कारण होते हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ १३६ ॥ ( असद्वेद्य कर्मके आस्रवके कारण। )- दुखःशोक, सन्ताप, वध, आक्रन्दन और देवन अपनेमें, दूसरोंमें और दोनोंमें करना मनुष्योंको यहां असद्वेदनीयकर्मके आस्रवके कारण होते हैं । १ दुःख-पीडारूप परिणामको दुःख कहते हैं । २ शोक- जिसने अपने ऊपर उपकार किया था उस व्यक्तिका वियोग होनेपर जो व्याकुलता उत्पन्न होती है उसे शोक कहते हैं । ३ संताप- किसीने अपनी निंदा की, किसीने मानभंग किया, किसीके कर्कश वचन सुने ऐसे कारणोंसे चित्त कलुषित होनेसे जो पश्चात्ताप-खेद होता है उसे संताप कहते हैं । ४ आक्रंदन- बहुत संतापसे अश्रुपात होना, प्रचुर विलाप होना इत्यादिकोंसे रुदन करना आक्रंदन हैं। ५ वध, आयुष्य, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वासका वियोग करना वध है। १ आ. निबन्धनाः २ आ. तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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