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________________ --९. १३२) सिद्धान्तसारः (२२३ भावरूपाधिकरणो' जीवाजीवाश्रयो मतः । वीर्यभावस्वसामर्थ्य' द्रव्यस्य गदितं बुधैः ।। १२५ तद्विशेषात्रवं किञ्चिन्निगदामि यथागमम् । यदि जानामि जीवानां परिहारविशुद्धये ।। १२६ कर्ममात्रात्रवाश्चैते ये सन्ति बहुधा पुनः । तद्विशेषाश्च विज्ञेयाः परमागमतो बुधैः ॥ १२७ तत्त्वज्ञानस्य सन्मोक्षसाधनस्य निवेदने । अन्तःपैशून्यमन्यस्य प्रदोष इह निश्चितः ॥ १२८ कुतश्चित्कारणान्नास्ति न जानामीति यः पुनः । विज्ञानस्यापलापोऽन्यं प्रत्यपह्नव इष्यते ॥ १२९ विभावितमपि ज्ञानं दानयोग्यमपि ध्रुवम् । पैशुन्याद्दीयते नैतत्तन्मात्सर्यमुदीरितम् ॥ १३० पठन पाठने चापि ज्ञानविच्छेदकारिता । अन्तरायो मतो दुष्टो विशिष्टज्ञानशालिभिः ।। १३१ कायेन वचसा वापि ज्ञानज्ञानवतोरिह । प्रकाशव्याहतौ प्रोक्तमासादनमनिन्दितैः ॥ १३२ ( अधिकरण और वीर्य ) - ऐसे भाव होनेमें जो आधारभूत वस्तु है वह जीवरूप और अजीवरूप है | उनको क्रमसे जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण कहते हैं । वस्तुका द्रव्यका जो स्वसामर्थ्य उसको बुद्धिमान् वीर्यभाव कहते हैं ।। १२५ ।। जीवोंके वध के त्यागमें विशुद्धताप्राप्ति होनेके लिये इनके विशेष आस्रवोंको मैं जिनागमके अनुसार कहता हूं ॥ १२६ संपूर्ण कर्मों के जो नाना प्रकार के आस्रव हैं और उनके जो विशेष हैं वे विद्वानोंके द्वारा परमागमसे जानने योग्य हैं ।। १२७ ।। ( ज्ञानदर्शनावरणोंके आस्रव । ) - १ प्रदोष - साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति में साधनभूत ऐसे तत्त्वज्ञानका कोई पुरुष निवेदन कर रहा हो तो उसके विषय में मनमें जो दुष्ट भाव उत्पन्न होना, उसकी प्रशंसा तो दूरही रही उलटा मनमें दुष्ट भाव धारण करना ऐसे दुष्ट भावको प्रदोष कहते हैं ।। १२८ ।। २ वि - कोई शास्त्रकी कुछ बातें जानने के लिये पूछता है तो बतानेवाला पुरुष किसी कारणसे मुझमें वह ज्ञान नहीं है, में नहीं जानता हूं ऐसा कह कर ज्ञानको छिपाता है ।। १२९ ३ मात्सर्य - खूब परिश्रम करके जो ज्ञान प्राप्ति कर लिया है, तथा जो निश्चयसे दूसरों को देने के योग्य है, ऐसा भी ज्ञान कुछ कारणोंसे नहीं देना वह मात्सर्य है ।। १३० ।। ४ अन्तराय - विद्यार्थियों के पढने में तथा गुरुजीके पढानेमें ज्ञानका विच्छेद करना यह अन्तराय दोष है, ऐसा विशिष्ट ज्ञानवालोंने माना है ।। १३१ ।। ५ आसादन • ज्ञान और ज्ञानी इनको प्रकाश में लानेके कार्य में मनसे, वचनसे और शरीरसे व्याघात उत्पन्न करना आसादन हैं, ऐसा प्रशंसनीय जनोंनें - गणधरादिकोंने कहा है ।। १३२ ॥ — १ आ. भावस्त्वाधिकरण्योऽपि २ आ. श्च ३ आ. यदि जानामि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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