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________________ सिद्धान्तसार: ( ९. ११७ उदयात्कर्मणो निन्द्यात्संयमस्य विघातिनः । या निवृत्तिर्भवत्यस्य सा प्रत्याख्यानकी ' क्रिया ॥ ११७पञ्चविंशतिसङख्याकः क्रियास्रव इहेरितः । कर्मास्रवत्यनेनेति व्युत्पत्तेः पूर्वसूरिभिः ।। ११८ आस्रवस्य विशेषोऽपि प्राणिनां जायते महान् । भावैस्तीव्रंस्तथा मन्दैस्तद्विशेषैरनेकधा ॥ ११९. ज्ञाताज्ञातैस्तथा वीर्यभावादिभिरयं पुनः । आस्रवस्य विशेषोऽस्ति तारतम्यविशेषतः ' ॥ १२० बाह्याभ्यन्तरहेतुभ्यस्तत्कालुष्यमिवाम्भसि । आत्मन्युब्रेकबाहुल्यं तीव्रो भावो निगद्यते ।। १२१ विपरीतो मतो मन्दो मन्दधर्मास्रवोऽपि सः । तद्विशेषस्तु विज्ञेयस्तारतम्येन तत्परः ॥ १२२ अयं प्राणी निहन्तव्य इति ज्ञात्वा प्रवर्तनम् । ज्ञातभावोऽत्र जीवानां महास्त्र विनबन्धनम् " ॥ १२३ यत्प्रमादवशाज्जीवो दुष्टाचारेषु वर्तते । अविज्ञातेषु सर्वेषु तमज्ञातं जगुर्बधाः ॥ १२४ २२२) ( प्रत्याख्यान क्रिया । ) - संयमका घात करनेवाले निद्य अशुभ कर्मका उदय आने संयमसे मुनिका निवृत्त होना प्रत्याख्यान क्रिया है ॥ ११७ ॥ जिसकी संख्या पच्चीस है ऐसा क्रियास्रव मैंने यहां कहा है । ' इन क्रियाओंसे कर्मका आस्रव होता है; इसलिये इनको क्रियास्रव कहते हैं' ऐसी पूर्वाचार्योंने क्रियास्रव शब्दकी व्युत्पत्ति की है ।। ११८ ।। ( आस्रवविशेषका वर्णन । ) - तीव्रभाव, मंदभाव और उसके विशेष तीव्रतर, तीव्रतम, मंदतर, मंदतम आदि भावोंसे महान् आस्रवविशेष होता है। वैसे ज्ञातभाव, अज्ञातभाव तथा वीर्य इत्यादि भावों से पुनः तारतम्यादि प्रकारोंसे आस्रवों में विशेषता उत्पन्न होती है ।। ११९--१२०॥ ( तीव्रभाव तथा मंदभावका लक्षण । ) - बाह्यकारणोंसे और अन्तरंगकारणोंसे जो आत्मामें अर्थात् आत्मा के परिणामोंमें उत्कटता होती है, जो उद्रेककी अतिशयता उत्पन्न होती है, उसे तीव्रभाव कहते हैं । जैसे पानी में कलुषता उत्पन्न होती है । तथा इससे विपरीत ऐसी जो आत्मामें परिणति होती है उसे मन्द कहते हैं । इस मंदपरिणामसे मंद आस्रव आता है । इस तीव्रभाव और मंदभाव के जो विशेष प्रकार उत्पन्न होते हैं वे तारतम्यसे मंदभाव और तीव्रभावके समझने चाहिये ।। १२१-१२२ ।। ( ज्ञातभाव और अज्ञातभाव ) - यह प्राणी मारना चाहिये ऐसा समझकर प्रवृत्ति करना ज्ञातभाव है और वह महास्रवका कारण है ।। १२३ ॥ प्रमादके वश होकर असावधानता, आलस्य आदिसे जिनका स्वरूप नहीं मालूम है ऐसे दोषयुक्त सर्व आचरणोंमें जीवकी जो प्रवृत्ति होती है उसे विद्वान् लोग अज्ञातभाव कहते हैं ।। १२४ ॥ १ आ. ख्यानिका ६ आ. जीवे ७ आ. वर्तनम् Jain Education International २ आ. धारा ३ तारतम्यादेकशः ४ आ. कर्मा For Private & Personal Use Only ५ आ. निबन्धनः www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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