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________________ -९. ११६) सिद्धान्तसारः (२२१ परेणाङगीकृतां तावदङ्गीकृत्य करोति यः। क्रियां तामिह भाषन्ते स्वहस्तविनिवर्तिताम्॥१०९ पापादानप्रवृत्तेर्यदभ्यनुज्ञा विधीयते । निसर्गाख्यां क्रियामाहुर्मुनयोऽनयनिर्गताः ॥ ११० परेण विहितछन्नसावधादिप्रकाशनम् । विदारणक्रिया दुष्टा कुर्वतां तत्प्रजायते ॥ १११ आज्ञाव्यापादिकोमाहुः क्रियां सच्चरणादिषु' । स्वयं कर्तुमशक्तो यो योजनं कुरुतेऽन्यथा ॥११२ शाठ्यालस्यवशे जीवे ह्यागमोद्दिष्टसद्विधेः । कर्तव्योऽनादरः सैषानादरादिक्रियाधमा ॥ ११३ छेदभेदादिदुःकर्मपरत्वं परतोऽपि वा । प्रारम्भे तस्य यो हर्षः सा प्रारम्भक्रिया मता ॥ ११४ परिग्रहाविनाशार्था सा पारिग्राहिको क्रिया । ज्ञानदर्शनचारित्रनिन्दा मायाक्रियां विदुः ॥११५ मिथ्यादर्शनविज्ञानक्रियाकरणकारणे तदाविष्ट प्रशंसा या सा मिथ्यादर्शनक्रिया ॥ ११६ (स्वहस्तक्रिया । )- दूसरेसे करने योग्य क्रियाका स्वयं आचरण करना उसको विद्वान् स्वहस्तविनिवर्तन क्रिया कहते हैं । १०९॥ ( निसर्गक्रिया । )- जिससे पापका आस्रव होता है, ऐसी क्रिया करनेके लिये सम्मति देना उसे मुनि, जोकि कुनयसे दूर हुए हैं, वे निसर्गक्रिया कहते हैं ।। ११० ॥ ( विदारणक्रिया। )- दूसरे स्त्रीपुरुषोंने जो कुछ गुप्त पापादि किये होंगे उनको प्रकाशित करना विदारण क्रिया है। उसे प्रकाशित करनेवालोंसे यह क्रिया होती है ॥ १११॥ ( आज्ञाव्यापादिकी क्रिया। )- जमीनपर बैठना, चलना इत्यादि कार्योंके विषयमें जो आगमाज्ञा है, उसके अनुसार स्वयं चलने में असमर्थ है और दूसरोंको जो आगमाज्ञाविरुद्ध चलनादि क्रियाओंमें प्रवृत्त करता है उसकी वह प्रवृत्ति अज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ।। ११२ ।। ( अनादर क्रिया। )- जो जीव सदा आलसी है, वह आगममें कही गई शुभक्रियाओंके कर्तव्यमें अनादर करता है। उसकी यह अधम अनादर क्रिया है ।। ११३ ॥ ( प्रारम्भक्रिया। )- छेदनभेदनादि दुष्कर्म करनेमें स्वयं तत्पर रहना और दूसरे यदि ऐसी क्रिया करते हैं तो उसमें हर्ष मानना वह प्रारंभ क्रिया मानी गई है ॥ ११४ ॥ ( पारिग्राहिकीक्रिया और मायाक्रिया।)- अपने परिग्रहोंका नाश न होवें एतदर्थ जो संरक्षणादिमें तत्पर रहना वह पारिग्राहिकी क्रिया है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रकी निन्दा करना मायाक्रिया है ।। ११५ ॥ ( मिथ्यादर्शन किया। )- मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र में स्वयं तत्पर होना और दूसरोंको तत्पर कराना, जो इनमें प्रविष्ट है उसकी प्रशंसा करना यह मिथ्यादर्शन क्रिया है ॥ ११६ ॥ १ विनिवर्तितम् १ आ. तच्चरणादिकम् ३ आ. निन्दा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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