SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२०) सिद्धान्तसारः ( ९. १०० प्रदुष्टस्य सतः कश्चिदत्युद्यमविधिर्महान् ' । यत्र विज्ञायते निन्द्या क्रिया कायभवा हि सा ॥ १०० हिंसोपकरणादानकारिणों भवधारिणीम् । क्रियामाहुः क्रियावन्तस्तामाधिकरणी मिह ॥ १०१ यस्यां हि क्रियमाणायां दुःखोत्पत्तिः प्रजायते । जीवानां मुनिभिर्गीता सा किया पारितापिकी ॥१०२ प्रमत्तयोगतः सर्वप्राणानां व्यपरोपणम् । यथा विधीयते सेयं क्रिया प्राणातिपातिकी ॥ १०३ रामारम्यैकरूपादिविलोकनपरा मतिः । यत्र तामिह गायन्ति प्रदुष्टां दर्शनक्रियाम् ॥ १०४ प्रमादैकवशाद्यस्याः स्पर्शनीयस्य वस्तुनः । स्पर्शे चिन्तानुबन्धः स्यात्सा हि संस्पर्शनक्रिया ॥ १०५ आधारादेरपूर्वस्योत्पादात्प्रात्ययिकी मता । क्रिया क्रियावतां मान्यैर्मुनिभिर्मलवजितैः ॥ १०६ स्त्रीपुरुषादिसम्पातिदेशे मलविसर्जनम् । क्रियते सा क्रियाभाणि समन्तादनुपातिनी ॥ १०७ अष्टादृष्टभूमौ यत्कायादीनां निवेशनम् । विधीयते क्रिया सैषा प्रोक्तानाभोगिता जिनैः ॥ १०८ ( कायिकी क्रिया । ) - किसी कार्य में लोभादिके वश होकर शरीरसे महान् उद्यम करना वह निन्द्य कायिकी क्रिया समझनी चाहिये ॥ १०० ॥ ( आधिकरणिकी क्रिया ) - हिंसाके उपकरणभूत शस्त्रादिग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है । यह क्रिया संसारको धारण करनेवाली है ऐसा क्रियावान्चारित्र पालनेवाले मुनिराज कहते हैं ॥ १०१ ॥ ( पारितापिकी क्रिया ) - जो क्रिया करनेसे जीवोंको दुःख उत्पन्न होता है उस क्रियाको मुनियोंने पारितापिकी क्रिया कहा है ॥ १०२ ॥ ( प्राणातिपातिकी क्रिया ) - आयु, इन्द्रिय, बल और प्राण श्वासोच्छवास ऐसे प्राणोंका वियोग करनेका यह कार्य जिससे होता है वह प्राणातिपातिकी क्रिया कहते हैं ।। १०३॥ ( दर्शनक्रिया ) - जिस क्रियामें स्त्रियोंका रमणीयरूप उनके सुंदर अंग, हावभाव देखने में बुद्धि तत्पर हो जाती है ऐसी दुष्ट क्रियाको मुनि दर्शनक्रिया कहते है ।। १०४ ।। ( स्पर्शनक्रिया ) - रागभावसे युक्त होकर और प्रमादी बनकर स्पर्शयोग्य वस्तुको स्पर्श करनेका सतत मनमें चिन्तन होना स्पर्शनक्रिया है ।। १०५ ॥ - ( प्रात्ययिकी क्रिया । ) - अपूर्व ऐसे अधिकरण- पदार्थ उत्पन्न करना वह प्रात्ययिकी क्रिया है ऐसा दोषरहित मान्य मुनि कहते हैं ॥ १०६ ॥ ( समन्तानुपातिनी क्रिया । ) - जहां स्त्रीपुरुष आते जाते हैं ऐसे स्थान में मलविसर्जन करना ऐसी क्रियाका नाम समन्तानुपातिनी है ।। १०७ ।। ( अनाभोगक्रिया । ) - जो जमीन झाडकर स्वच्छ नहीं की है, तथा जो आखोंसे सम्यक् नहीं देखी है ऐसी भूमि पर शरीर से बैठना, सोना, हाथ पाँव फैलाना वह अनाभोगिता क्रिया हैं ।। १०८॥ १ आ. अभ्युद्यमः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy