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सिद्धान्तसारः
(२१९
पञ्चेन्द्रियवशात्कर्म यदास्रवति दुर्धरम् । स चेन्द्रियास्रवोऽभाणि पञ्चधा परमेश्वरः ॥ ९२ क्रियास्रवस्तु विज्ञेयः पञ्चविंशतिसंख्यकः । जिनागमपयोऽम्भोधिपारगैः कथितो बुधः॥ ९३ चैत्यानां सुगुरूणां च सिद्धान्तस्यापि शक्तितः। पूजादिलक्षणाभाणि क्रिया सम्यक्त्ववधिनी॥९४ कुलिङ्गदेवपाखण्डचारित्रस्तवनादिका । या क्रिया क्रियते विद्धिर्मता मिथ्यात्वधिनी ॥ ९५ शुभाशुभनिमित्तैकगतप्रत्यागतक्रिया । प्रायोगिकी मता प्राज्ञैः प्रगताशेषकल्मषैः ॥ ९६ संयतस्य सतो यच्चाविरति प्रतिवर्तना । आभिमुख्येन सावादि समादानक्रिया बुधैः ॥ ९७ ईयापथविशुद्धयर्थं प्रवृत्तिर्या विधीयते । तामीर्यापथिकामाहुः क्रियां शश्वक्रियाविदः ॥ ९८ क्रोधावेशात्प्रवृत्तिर्या यत्र तत्राविचारतः । प्रादोषिकी क्रियां दक्षाः कथयन्त्यतिदुःखदाम् ॥ ९९
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( इन्द्रियास्रवके भेद । )- पांच इन्द्रियोंके विषयोंमें लुब्ध होनेसे दुर्धर कर्म जीवमें आता है उसे इन्द्रियास्रव कहते हैं। इसके जिनेश्वरने पांच भेद कहे हैं । स्पर्शनेन्द्रियके वश होकर जो कर्मास्रव होता है उसे स्पर्शनेन्द्रियास्रव कहते हैं । इसी तरह रसनेन्द्रियास्रव, घ्राणेन्द्रियास्रव, चक्षुरिन्द्रियास्रव और श्रोत्रेन्द्रियास्रव ऐसे इन्द्रियास्रवके पांच भेद हैं ॥ ९२.॥
( क्रियास्रवके पच्चीस भेद । )- जिनागमरूप समुद्र के दूसरे किनारेको पहुंचे हुए विद्वानोंने क्रियास्रवके पच्चीस भेद कहे हैं ॥ ९३ ॥
(सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया। )- जिनप्रतिमा, निर्ग्रन्थगुरु और जिनागमकी यथाशक्ति पूजा, आदर, भक्ति, विनय आदि करना सम्यक्त्वद्धिनी क्रिया कही गई है ॥ ९४ ॥
(मिथ्यात्वद्धिनी। )- मिथ्यात्वी साधु, हरिहरादिक मिथ्यादेव और पाखण्डियोंके चारित्रकी जो स्तुति - प्रशंसा आदि की जाती है उसे विद्वान् मिथ्यात्ववधिनी क्रिया कहते हैं ।। ९५ ॥
(प्रायोगिकी क्रिया। )- शुभ और अशुभ कार्योंके निमित्त जो शरीरादिसे और वाहनोंसे जाना आना आदि क्रिया की जाती है उसे जिनका समस्त पाप नष्ट हुआ है ऐसे विद्वानोंने प्रायोगिकी क्रिया कहा है ।। ९६ ॥
( समादान क्रिया। )- संयत अर्थात् मुनिका मुख्यतासे अविरतिके प्रति झुक जाना समादान क्रिया है ऐसा विद्वानोंने कहा है ॥ ९७ ।।
( ईयापथिका क्रिया। )- ईर्यापथकी विशुद्धताके लिये जो क्रिया की जाती है, उसे नित्यक्रियाके स्वरूपके ज्ञाता - ईर्यापथक्रिया कहते हैं । अर्थात् सूर्योदय होनेपर चार हाथ जमीन देखकर सावधानतासे गमन करना ईर्यापथ क्रिया है ।। ९८ ॥
(प्रादोषिकी क्रिया। )- क्रोधके आवेशसे किसीभी कार्यमें विचार किये बिना जो प्रवृत्ति होती है उसे चतुर लोग अतिशय दुःख देनेवाली प्रादोषिकी क्रिया कहते हैं । ९९ ॥
१ आ. दुर्धरः
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