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________________ २१८) सिद्धान्तसारः (-९. ८५ स चतुर्धा मतः क्रोधलोभमायादिमानतः' । कषाय इव जीवानां कर्मरागैकहेतुकः ॥ ८५ संज्वलनस्तथान्यश्च प्रत्याख्यानः स इष्यते। अप्रत्याख्यान इत्येवं तथानन्तानुबन्धिकः॥ ८६ प्रत्येकमिति चत्वारो भेदाः क्रोधादिना मताः। सर्वे सम्मिलिताः सन्ति षोडशतेऽतिदुर्धराः ॥ ८७ संज्वलनोऽथ क्षणध्वंसी विलास' इव विद्युताम् । यः प्रत्याख्यायते कालात्स प्रत्याख्यान ईरितः॥८८ कियत्कालेन यो याति विनाशं स्वत एव हि । अप्रत्याख्याननामानं तमाहुर्गणनायकाः ॥ ८९ अनन्तसंसृतेर्हेतोः कर्मबन्धैकहेतुकः । यश्चानन्तानुबन्ध्याख्यः कषायः स निगद्यते ॥९० कषायास्रव इत्थं यश्चतुर्द्धा गदितो जिनः । वर्जयन्ति त्रिधाप्येनं भव्याः संसारभीरवः ॥ ९१ स्पष्टीकरण – सांपरायिक आस्रव कषायसहित जीवोंके होते हैं और वे दसवे गुणस्थानतकके जीवोंको होते हैं। ग्यारहवे गुणस्थानमें कषायोंका उपशम होता है तथा बारहवे आदिक गुणस्थानोंमें जीवोंके कषाय पूर्ण नष्ट हुए हैं; अतः उन गुणस्थानवर्ती जीवोंको ईर्यापथ आस्रव होते हैं। ईर्याशब्दका अर्थ योग होता है, और पथ शब्दका अर्थ मार्ग-द्वार ऐसा होता है। अर्थात् केवल योगके द्वारा कर्मागमन जिससे होता है ऐसे आस्रवको इर्यापथास्राव कहना चाहिये। इर्यापथास्रव संसार-परिभ्रमणका कारण नहीं है; क्योंकि उससे जो कर्म आता है वह प्रकृतिबंधसे और प्रदेशबंधसे युक्त होता है। तथा सांपरायिकास्रव स्थितिबंध और अनुभागबंधको उत्पन्न करनेवाला होता है। ( कषायकी निरुक्ति भेद और स्वरूप।) - वह कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे भेदसे चार प्रकारका है। जैसे कषाय- अर्थात् वटवृक्षकी छाल, हरे और बेहडाके कषाय रससे धोये वस्त्रपर रंग जम जाता है, वैसे ये क्रोधादि कषाय कर्मरूपी रंगको जमाने में कारण होते है। अतः क्रोधादिकोंका कषाय यह नाम अन्वर्थक है। कषायोंके संज्वलन, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और अनंतानुबंधी ऐसे चार भेद हैं और प्रत्येकके क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चार भेद हैं । मिलकर सर्व भेद सोलह होते हैं। ये भेद अतिशय दुर्धर हैं; क्योंकि इनसे आत्मा अलग होना महाकठिन कार्य है ।। ८५-८७ ॥ संज्वलन कषाय जल्दी नष्ट होता है जैसे विद्युत्का प्रकाश क्षणके अनंतर नष्ट होता है। सं-सम्यक शीघ्र ज्वलन-जलनेवाला-नष्ट होनेवाला ऐसी संज्वलन शब्दकी निरुक्ति हैं। प्रत्याख्यान-जो कषाय कालसे त्यागा जाता है उसे प्रत्याख्यान कषाय कहते हैं। कुछ परिमित कालसे जो स्वयं नष्ट होता है उसे गणनायक-गणधर अप्रत्याख्यान कषाय कहते है। अनंत संसारका जो हेतु है तथा जो कर्मबंधका मिथ्यात्वके समान मुख्य हेतु है ऐसे कषायको अनंतानुबंधी कहते हैं। इस प्रकारसे जो कषायास्रव चार प्रकारका जिनेन्द्रोंने कहा है, संसारसे डरनेवाले भव्य जीव उसे मन वचन और शरीरसेभी छोडते हैं ।। ८८-९१ ॥ १ आः मायाभिमानतः २ आ. संज्वलनः क्षणध्वंसी ३ आ. विस्फार ४ आ. यस्त्वनन्तानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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