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________________ -९. ८४) सिद्धान्तसारः (२१७ प्राणातिपातनादत्तादानमैथुनसेवनात् । अशुभः काययोगोऽयं कथितो मुनिपुङगवैः ॥८१ असत्याद्यशुभोऽभाणि वाग्योगो गतिनायकैः । अशुभस्तु मनोयोगो वाचिन्तनादितः ॥८२ तस्मादन्यस्त्रिधाप्येष शुभोऽवाचि विचक्षणः । आत्मनस्तु तथाभूतस्वभाविनिवर्तते ॥ ८३ संसारहेतुः कोपादिः सकषायस्य सूरिभिः । इतरश्चाकषायस्य कषायस्तेन वय॑ते ॥ ८४ मनोयोग- अभ्यन्तर वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेसे तथा नो इन्द्रियावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे मनोलब्धि प्राप्त होती है, और बाह्य कारणरूप मनोवर्गणाका आगमनभी होता हैं। तब मनकी परणतिके सम्मुख हुए आत्माके प्रदेशोंमें चंचलता होती है, उसे मनोयोग कहते हैं। ( शुभयोग और अशुभयोग।) - शुभपरिणामोंसे उत्पन्न होनेवाली मन, वचन और शरीरकी चेष्टासे आत्मामें शुभ कर्मका आगमन होता है और अशुभपरिणामोंसे उत्पन्न होनेवाली मन, वचन और शरीरकी चेष्टासे अशुभ कर्मका आगमन होता है । इस प्रकारसे कर्मके शभकर्म और अशुभकर्म ऐसे दो भेद होते हैं। शुभयोग शुभास्रवका-पुण्यास्रवका कारण है, और अशुभयोग अशुभास्रवका-पापका कारण है ऐसा समझना चाहिये ॥ ८०॥ प्राणिहिंसा करना, नहीं दी हुई वस्तु ग्रहण करना, मैथुनसेवन करना ऐसे अकार्यको मुनिश्रेष्ठ अशुभकाययोग कहते हैं। असत्य भाषण करना, निन्दा करना, द्वेषवचन बोलना यह अशुभ वचनयोग है, ऐसा पंचमगतिके नायक जिनेश्वर कहते हैं। किसीके वधका विचार करना, ईर्ष्या करना, परगुणोंको सहन न करना इत्यादिसे अशुभ मनोयोग होता है, और इन अशुभ मन वचन काययोगोंसे उलटे स्वरूपको धारण करनेवाले शुभ मन वचन और शुभकाययोग ऐसे तीन शुभयोग हैं। परोपकार करना, देवपूजा करना इत्यादि शुभ काययोग हैं। सत्यभाषण करना, धर्मोपदेश देना शुभ वचनयोग है और किसीको जिलानेका विचार करना, गुणोंका मनसे आदर करना आदि शुभ मनोयोग है, ऐसा चतुर पुरुष कहते हैं। ये शुभयोग वैसे शुभ परिणामोंसे उत्पन्न होते हैं ।। ८१-८३ ।। ( आस्रवके भेद।) - क्रोध, मान, माया और लोभसे उत्पन्न हुए आस्रवकोकर्मागमनको सांपरायिक आस्रव कहते हैं। सांपरायका अर्थ संसार है। संसार जिसका प्रयोजन है, ऐसे आस्रवको सांपरायिक आस्रव कहते हैं। यह आस्रव कषायवाले जीवको होता है और ईर्यापथआस्रव अकषाय जीव-कषायरहित जीवको होता है। इसलिये आचार्य कषायोंका त्याग करते हैं जिससे सांपराय आस्रव उनको होते नहीं ॥ ८४ ॥ १ आ. चिन्तया मतः २ आ. अभिवतिनः ३ आ. संसारहेतुकोऽवादि ४ आ. इतरस्त्वकषायस्य S.S. 28. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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