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________________ २१६) सिद्धान्तसारः (९.७४ जीवस्याजीवद्रव्याणामुपकारो निवेदितः । जीवे जीवोपकारस्तु कीदृशोऽसौ निगद्यते ॥ ७४ परस्परोपकारस्तु जीवानामुदितो जिनैः । स्वामी भृत्यस्तथाचार्यः शिष्य इत्येवमादिकः ॥ ७५ अजीवद्रव्यनिर्देशोऽप्युद्देशेन निवेदितः । अन्यैरन्यत्र सिद्धान्ते ज्ञातव्यः सूत्रवेदिभिः ॥ ७६ ।। इदानीमास्त्रवं किञ्चित्स्वरूपादवबुध्यते । समासाद्वच्मि भव्यानामुपकाराय चात्मनः ॥ ७७ यस्तु वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमतो भवेत् । कायवाङमानसापेक्षो व्यापारो ह्यात्मनश्च सः॥७८ आस्रवोऽभाणि सूत्रज्ञैः कर्मास्रवनिमित्ततः । यथा सरसि तोयस्यास्रवणद्वारमात्मनः ॥ ७९ शुभाशुभभवाद्भेदात्कर्म द्वेधा व्यवस्थितम् । शुभः शुभस्य विज्ञेयोऽशुभस्याशुभ एव सः ॥ ८० प्राप्त होनेपर जो अप्रीतिरूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे दुःख कहते हैं। ये अजीव द्रव्यके जीवपर उपकार बतलायें हैं। अब जीवके ऊपर जीवका उपकार कैसा होता हैं ? इसका उत्तर दिया जाता है ।। ७३ ॥ ( जीवके ऊपर जीवका उपकार।)- जिनेश्वरोंने जीवोंका अन्योन्य उपकार कहा है। वह उपकार स्वामी और नोकरसंबंधी आचार्य और शिष्यसंबंधी इत्यादि अनेक रूपका होता है। मालिक नोकरको धन देकर उपकार करता है। नोकरभी हितकार्य करना, अहितकार्यसे मालिकको दर रखना इत्यादि रूपसे मालिकपर उपकार करता है। आचार्य इहलोकमें और परलोकमें सदाचार दुराचारसे भला बुरा फल मिलता है ऐसा उपदेश देकर शिष्यके ऊपर उपकार करते है; तथा शिष्यभी उनके अनुकूल चलते हैं यह शिष्योंका आचार्यके ऊपर उपकार है ।।७४-७५।। __ हमने यहां अजीव द्रव्यका नाममात्र कथन किया है अन्य सूत्रज्ञ विद्वानोंको अन्य सिद्धान्त ग्रंथोंसे इसका स्वरूप जानना योग्य है ।। ७६ ।। ( आस्रवतत्त्वकथनकी प्रतिज्ञा। )- अब आस्रवतत्त्वका कुछ स्वरूप, जो कि मैं जानता हं, संक्षेपसे भव्योंके उपकारके लिये और मेरे उपकारके लिये कहता हूं ॥ ७७ ॥ ( आस्रवका लक्षण। )- वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे शरीर, वचन और मनकी अपेक्षा लेकर जो आत्माकी चेष्टा होती है, उसे सूत्रके ज्ञाताओंने कर्मास्रवोंका निमित्त होनेसे आस्रव कहा है। जैसे सरोवर में पानी आनेके द्वारको आस्रव कहते हैं, वैसे आत्मामें कर्मागमनके कारण ऐसी जो मन वचन कायकी प्रवृत्ति उसे आस्रव कहते हैं ।। ७८-७९ ।। स्पष्टीकरण- वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेसे औदारिकादि सात प्रकारकी वर्गणाओमेंसे किसी एक वर्गणाके साहाय्यसे जो आत्मप्रदेशमें चंचलता उत्पन्न होती है उसे काययोग कहते हैं। वचनयोग - शरीरनामकर्मके उदयसे आई हुई वचनवर्गणाओंका आलंबन प्राप्त होनेपर वीर्यान्तराय तथा मत्यक्षराद्यावरण कर्मके क्षयोपशमसे आत्मामें बोलनेकी लब्धि - शक्ति प्राप्त होती है, जिससे आत्मा जब बोलनेकी चेष्टा करता है तब उसके प्रदेशोंमें चंचलता उत्पन्न होती है, उसे वचनयोग कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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