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-९. ७३)
सिद्धान्तसारः
(२१५
क्षयोपशमतो ज्ञानावृतिवीर्यान्तराययोः । आत्मनोदस्यमानस्तु प्राणः कोष्ठयः समीरणः ॥ ६६ आत्मनाभ्यन्तरे यस्तु बाह्यो वायुविधीयते । निश्वासलक्षणः सोऽयमपान इति कथ्यते ॥ ६७ समानोदानसद्व्याना अभिन्नाः सन्ति वायवः । स्वरूपमनयोरेव तेषां समवतिष्ठते ॥ ६८ तेषामपि मनःप्राणापानादीनां हि मूर्तता । सप्रतीघाततः सिद्धा हन्त हन्तुं न शक्यते ॥ ६९ सुरामूर्छादिभिस्तस्य मनसो भयहेतुभिः। दृश्यते सप्रतीघातस्ततः पौद्गलिकं मनः ॥ ७० सत्प्राणापानयोर्बाधाः श्लेष्महस्ततलादिभिः। व्याघातो दृश्यते तस्मान्मूर्तित्वमनयोध्रुवम् ॥७१ अत एवात्मनः सिद्धिस्तत्कर्मापेक्षया मता । यथा यन्त्रमये रूपे चेष्टा पुरुषहेतुका ॥ ७२ आभिमानिकसत्सौख्यं जीवितं मरणं तथा। दुःखं वा जीवतत्त्वस्य पुद्गलेभ्यः प्रजायते ॥७३
(प्राणापनका स्वरूप ।)- ज्ञानावरण कर्म और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामके उदयकी अपेक्षासे आत्माके द्वारा बाहर जो निकाला जाता है ऐसे कोठेके वायुको प्राण कहते हैं । इसका दूसरा नाम उच्छ्वास है। बाहरका वायु आत्माके द्वारा अभ्यन्तरमें ग्रहण किया जाता है उसको अपान कहते हैं, इसको निश्वासभी कहते हैं। समान, उदान, व्यान आदि जो वायु हैं, वे प्राण और अपानसे अभिन्न हैं अर्थात् समानादिकभी वायुही हैं। प्राण और अपानका जो स्वरूप है वही स्वरूप समानादिकोंकाभी है । स्थानभेदसे एकही वायु भिन्न भिन्न भिन्न नामधारक है ॥ ६६-६८ ॥
मन, प्राण और अपानादिकभी मूर्तिक हैं क्योंकि ये प्रतिघातसहित हैं। इनकी मूर्तिकता अबाधित है । स्पष्टीकरण- भयके कारण वज्रपात इत्यादिकसे मनको आघात पहुंचता है। मद्यपानादिकसे मनका अभिभव होता है। वह विचारशून्य बनता है। इसलिये मन पौद्गलिक है। हाथसे मुख दबानेसे उच्छ्वासनिःश्वासका घात होता है। जब श्लेष्मा बढता है तब उच्छ्वास निःश्वासमें बाधा आती है। प्राणापानादिकके सद्भावसे क्रियावान् आत्माकी सिद्धि होती है। जैसे यंत्रमय प्रतिमाकी-कठपुतलीकी जो चेष्टा होती है वह किसी नचानेवाले पुरुषसे होती है । बिना उसके वह यंत्रप्रतिमा चेष्टा नहीं करती। वैसे प्राणापानादिककी क्रियाकी अपेक्षासे आत्माकी सिद्धि होती है ।। ६९-७२ ॥
(पुद्गलके और भी उपकार ।)- अन्तरंग कारण सद्वदनीय कर्मका उदय होनेपर तथा स्त्री पुष्पमालादिक बाह्य कारण प्राप्त होनेपर जीवके अन्तःकरणमें जो प्रसन्नता-प्रीति उत्पन्न होती है, उसे सुख कहते हैं । इस प्रीतिसे मैं सुखी हूं ऐसा अभिमान जीवमें उत्पन्न होता है। भवधारणका कारण आयुकर्म है। उसके उदयसे जीवको भवस्थिति प्राप्त होती है। और प्राण अपानका सद्भाव रहता है इसकोही जीवित कहते हैं। भवधारणका कारणरूप आयुकर्म जब अनुभव देकर समाप्त होता है तब प्राणअपानका सद्भाव नहीं रहता है अर्थात् जीवनक्रियाका उच्छेद होता है। इसको मरण कहते हैं । अन्तरंग कारण असद्वेद्यका उदय और बाह्यकारण विष, कण्टक, शत्रु आदिक
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