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( ९. ५९
शरीरपञ्चकैर्वाचा मनसा च तथा पुनः । प्राणापानकजीवानां' पुद्गलोपकृतिर्मता ॥ ५९ अथ कार्मणदेहस्य पुद्गलत्वमसङ्गतम् । अनाकारत्वतस्तस्य साकारत्वेन निर्णयात् ॥ ६० तन्न युक्तं विपाकेन मूर्तिमत्त्वस्य साधनात् । विपाकः सर्वभावेषु मूर्तेष्वेव विलोक्यते ॥ ६१ उदकादिकसम्बन्धाद्व्रीह्यादेः परिपाकतः । तथा पुद्गलता सिद्धा तेषां कर्मण्यबाधिता ॥ ६२ स्वाद्वम्लकटुलावण्यस्रग्वनितादियोगतः । कण्टकाद्यस्त्रसंयोगात्तद्विपाकोऽपि दृश्यते ॥ ६३ तस्मात्तत्पच्यमानत्वात्कर्म पौद्गलिकं मतम् । अन्यद्रव्यस्य सम्बन्धे व्रीह्यादिवदनेकधा ॥ ६४ मनोवाक्पुद्गलत्वं च पूर्वमेव निवेदितम् । प्राणापानस्वरूपं तु किञ्चिदत्र निगद्यते ॥ ६५
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( पुद्गल के उपकारका वर्णन । ) - औदारिकादिक पांच शरीर, वचन, मन, श्वास और उच्छ्वास इनकेद्वारा पुद्गल जीवके ऊपर उपकार करता है । यहां शिष्यने शंका की हैदेहको आप पुद्गल मानते हैं यह असंगत है। क्योंकि वह अनाकार है- आकाररहित है, जो आकाररहित है उससे उपकार होना शक्य नहीं है । उपकारके लिये साकारत्वकी आवश्यकता है । आचार्य खुलासा करते हैं - यह आपका कहना योग्य नहीं है । कार्मणशरीरका विपाक होता है, उसका उदय होकर नया कर्म बंध-जाना आदि फल मिलता है इससे वह मूर्तिमान् है ऐसा सिद्ध होता है । कार्मणशरीरका उदय मूर्तिमान् पदार्थ के संबंधसे होता है और वह उसके संबंध से सुखदुःखादि फल देता है । सर्व अवस्थामें जो कर्मविपाक होता है, वह मूर्तिक होनेसेही होता है । जैसे जलादिकका संबंध होनेसे शालि आदिक धान्य पक जाता है वैसे विष कण्टकादिकोंका संबंध होने से कार्मणशरीर विपाकयुक्त होकर सुखदुःखरूप फल देता है । नये रागद्वेषादिक विकार उत्पन्न करता है; जिससे नया कर्म बंध जाते हैं ।। ५९-६१ ।।
सिद्धान्तसारः
जल, हवा आदिके संयोगसे व्रीहि आदिक धान्य परिपक्व होता है अर्थात् जलादिक मूर्तिक पदार्थों का संयोग होने से व्रीह्यादि बीज अंकुररूप होकर उससे व्रीह्यादि फलनिष्पत्ति होती है । तद्वत् कार्मणशरीरमें अबाधित ऐसा पुद्गलपना सिद्ध होता है । मिष्ट, अम्ल, कडु, क्षार आदि पदार्थ पुष्पमाला, स्त्री आदिकों का संयोग होनेसे तथा कण्टक, शस्त्रादिकोंका संयोग होनेसे कर्मकाभी सुख दुःख रूप फल देने रूप विपाक दिखता है । इसलिये कर्म अनाकार होनेसे पुद्गल नहीं, इत्यादिक कहना अयुक्त है ।। ६२-६४ ॥
मन और वचन ये पुद्गल है ऐसा पूर्वमेव कह चुके हैं । प्राण और अपानके स्वरूप विषय में यहाँ कुछ कहते हैं ॥ ६५ ॥
१ प्राणापानैश्च
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