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________________ २२६) सिद्धान्तसारः (९. १४१ सामान्यसंयतस्येहावर्णवादेन दुर्गति । यान्ति केवलिनस्तेन क्व ते लोका न वेद्मयहम् ॥ १४१ मांसचर्मोदकादीनामनवद्यनिरूपणम् । शास्त्रे जैनेऽपि शास्त्रस्यावर्णवादः सतां मतः ॥ १४२ नग्नाश्चण्डाश्च बीभत्साः सर्वथा शुचिर्वाजताः । इत्याद्याभाषणं संघावर्णवादो विभाव्यते ॥१४३ आसुरोऽयं मतो धर्मो जैनेन्द्रो निर्गुणस्तथा । इत्याद्याभाषणं धर्मावर्णवादोऽतिदुःसहः ॥ १४४ सुरामांसवधादीनामभावं निगदन्नयम् । तदेव' तस्य वर्णस्यावर्णवादो निगद्यते ॥ १४५ यः कषायोदयात्तीवः परिणामः प्रजायते । चारित्रमोहनीयस्य स हेतुः कर्मणो मतः ॥ १४६ कषायोत्पादनं स्वस्य परस्य च तथा पुनः। क्लिष्टलिङ्गग्रहो वापि वतिनां व्रतदूषणम् ॥ १४७ केवली अवर्णवाद - जिनका ज्ञान आवरणरहित हुआ है, ऐसे सर्वज्ञ जिनेश्वर, सामान्यकेवली और गणधरकेवली ये कवलाहार करते हैं, तथा इनको नीहारभी है अर्थात् मलमूत्रभी है इनको रोग होता है, उपसर्ग होता है, वे नग्न होते हैं परन्तु वस्त्राभरणमंडित दीखते हैं इत्यादि ऐसे दोषोंका आरोपण करना केवली अवर्णवाद है। सामान्य मुनिके विषयमेंभी दोषारोपण करनेसे प्राणीको दुर्गतिकी प्राप्ति होती है फिर जो लोग केवलीके ऊपर उपर्युक्त झूठे आक्षेप करते हैं, उनको कौनसी दुर्गति प्राप्त होगी, मैं नहीं जानता ॥ १४१ ॥ श्रुतावर्णवाद -- मांसभक्षण करना, चर्म में रखा हुआ पानी पीना, मद्यपान करना, रात्रिभोजन करना, जलगालन नहीं करना, माता तथा बहनके साथ संभोग करना, कंदमूलभक्षण करना आदि पापोंकोभी जैनशास्त्र विधेय बतलाता है ऐसा जैनशास्त्रपरभी आक्षेप करना यह श्रुतावर्णवाद है ॥ १४२॥ संघावर्णवाद - रत्नत्रययुक्त मुनिसमूहको संघ कहते हैं उनके ऊपर इस प्रकारसे आक्षेप मिथ्यात्वी कहते है-ये जैनमुनि नग्न रहते हैं, अतिशय कोपी होते हैं और बीभत्स तथा अपवित्र रहते हैं, कलिकाल में ये उत्पन्न हुए हैं ऐसा आक्षेप करना संघावर्णवाद है ॥ १४३ ॥ ___ धर्मावर्णवाद - यह जैनधर्म असुरोंका है, और गुणरहित है इत्यादि आक्षेप करना यह धर्मावर्णवाद अतिशय दुःखकारक है ।। १४४ ॥ देवावर्णवाद - देव मदिरापान करते हैं, मांस सेवन करते हैं, यज्ञादिकमें आकर बलीग्रहण करते हैं इत्यादि बातें देवोंका अवर्णवाद है। ( श्रुतसागरी अध्याय छठा) मदिरा, मांस, प्राणिवध आदिका अभाव कहनेवाला देव नहीं हो सकता ऐसा कहना यह देवदेवके ऊपर अवर्णवाद है ।। १४५ ॥ ( चारित्रमोहनीय कर्मके आस्रव-कारण । )- कषायोंके उदयसे जो तीव्र परिणाम होता है, वह चारित्रमोहनीय कर्मके आस्रवका कारण होता है ॥ १४६ ।। अपने में तथा दुसरोंमें कषाय उत्पन्न करना, संक्लेशपरिणाम युक्त होकर मिथ्यासाधुका १ आ. न देवो देवदेवस्य वर्णवादो निगद्यते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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