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________________ २०८) सिद्धान्तसारः (९. २३ मनो द्विविधमाख्यातं द्रव्यभावप्रभेदतः । तत्र भावमनो ज्ञानमात्मन्यन्तर्भवेद्यतः ॥ २३ आत्मैव कथ्यते तावदान्तरं द्रव्यमानसम । बाह्य रूपादिमत्त्वात्तत्पुदगलद्रव्यमीर्यते ॥ २४ ज्ञानोपयोगहेतृत्वान्मनो रूपादिवन्मतम । चक्षरिन्द्रियवत्प्राज्ञैः प्रगताशेषकल्मषैः॥ २५ शब्दे मूर्तेऽपि तदृष्ट्वा व्यभिचारो न युज्यते । तस्य पौद्गलिकत्वेन मूतिमत्त्वोपतिनः ॥२६ पुद्गलत्वं न चासिद्धं शब्दे तस्य प्रसाधनात् । बहिरिन्द्रियसंग्राह्यः शब्दो यस्माद्घटादिवत् ॥२७ शिखरादिप्रपातस्याभिघातात्कथमन्यथा । ततः स एव शब्दस्य पुद्गलत्वं प्रसाधयेत् ॥ २८ ................. जैसी पृथ्वी रूपवती है। इन दो अनुमानोंसे जल और अग्निमें वायुके समान पुद्गलस्वरूपता जैनाचार्योंने सिद्ध की है ॥ २२ ॥ ( भावमन आत्मतत्वमें और द्रव्यमन पुद्गलमें अन्तर्भूत है।)- द्रव्य और भाव ऐसे मनभी दो प्रकारका कहा है। अर्थात द्रव्यमन और भावमन ऐसे मनके दो भेद हैं। उनमें भावमन ज्ञानरूप होनेसे आत्मामें उसका अन्तर्भाव होता है क्योंकि भावमन वास्तविक आत्माही है। वह आत्मरूप होनेसे उसे अन्तःकरण कहते हैं। नो इन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे युक्त जो आत्मप्रदेश है उन्हें भावमन कहते हैं। जिनका सब पाप नष्ट हआ है ऐसे विद्वानोंने चक्षके समान रूपादियक्त होनेसे बाह्य द्रव्यमनको पूदगलद्रव्य माना है। जैसा चक्ष ज्ञानोपयोगको कारण होनेसे पुदगलरूप है वैसा मनभी ज्ञानोपयोगको कारण होनेसे रूपादिमान है ।। २३-२४ ।। ( शब्दभी पौद्गलिकही है। )- नैयायिकादिक कहते हैं, कि शब्द अमूर्त होकरभी ज्ञानोपयोगके लिये हेतु होता हैं। अर्थात् मूर्तिमान पदार्थही ज्ञानोपयोगके हेतु होते हैं ऐसा समझना ठीक नहीं है। अमूर्तिक पदार्थभी ज्ञानोपयोगके हेतु होते हैं। अतः मूर्तिमत्त्व मनमें सिद्ध करनेके लिये दिया हुआ ज्ञानोपयोग हेतु विपक्षभूत अमूर्तिक पदार्थों में चला जानेसे अनेकांतिक हुआ ऐसा प्रतिपक्षीने कहा। इसके अनन्तर वादी जैन कहते हैं, कि यह व्यभिचार दोष योग्य नहीं है, क्योंकि, जिस शब्दको आप अमूर्तिक समझ रहे हैं वह वैसा नहीं हैं, क्योंकि वहभी चक्षुरादि इन्द्रियोंके समान मूर्तिमान् है। इसलिये उसकोभी जैन पौद्गलिकही कहते हैं। शब्दमें पुद्गलत्व असिद्ध नहीं है, क्योंकि घटादिक जैसे बाह्य इन्द्रियसे-चक्षुरादिकसे ग्रहण किये जाते हैं वैसे शब्दभी बाह्य इन्द्रियसे ग्रहण किये जाते हैं अतः वेभी पौद्गलिक हैं ॥ २५-२७ ॥ पर्वतके शिखरादिक पडनेसे बडा शब्द उत्पन्न होता है, जो कि कर्णके ऊपर आघात करता है। इसलिये शब्द पौद्गलिक अर्थात् मूर्तिक है, अमूर्तिक वस्तुका आघात नहीं होता, मूर्तिक वस्तु आघातयोग्य-अभिभवयोग्य होती है। इसलिये अभिघात होना, अभिघात करना इत्यादि धर्म १ आ. आत्मन्यन्तर्भवत्यपि २ आ. मूर्तिमत्त्वोपपत्तितः ३ आ. शिखरादेः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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