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-९. २२)
सिद्धान्तसारः
(२०७
पुद्गलत्वं कथं तेषामेषा भाषा न युज्यते । तद्रूपाद्यन्वयत्वेन तत्स्वभावविभावनात् ॥ १७ अथेदमुच्यते चित्ते बाह्यरूपाद्यदर्शनात् । तत्रान्वयाप्रसिद्धत्वात्कथं पुद्गलतानयोः ॥ १८ तन्न युक्तमनुद्भूतरूपो वायुर्यतो मतः । अत एव न चक्षुर्त्यां गृह्यते परमाणुवत् ॥ १९ रूपादिमानयं वायुः स्पर्शवत्त्वाद्धटादिवत् । प्रसिद्धो धीमतां यस्मात्पुद्गलात्मा' प्रभञ्जनः॥२० चक्षुषाग्रहणान्नास्य तदभावो विभाव्यते । अतिप्रसङ्गदोषेण दुष्टत्वात्परमाणुषु ॥ २१ तथापो गन्धवत्यश्च पृथ्वीवत्स्पर्शवत्वतः । तेजोऽपि रसगन्धाढ्यं रूपित्वात्तद्वदेव हि ॥ २२
( इन पदार्थों में पुद्गलत्वकी सिद्धि। )- इन पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि, और मनको पुद्गल कैसा कहें ? ऐसी भाषा अर्थात् ऐसा प्रश्न पूछना योग्य नहीं है। क्योंकि, पुद्गलके स्पर्श, रस, गंध, वर्ण इन गुणोंका अन्वय पृथिवी, पानी आदिकमें दिखता है। अत एव इनमें पुद्गलके स्वभाव प्रगट हैं, ऐसा मानने में कुछ विरोध नहीं दिखता। अर्थात् जलादिक स्पर्श, रस, गंधादिक गुण जो कि पुद्गलमें दिखते हैं वे होनेसे उनकोभी पुद्गल कहना चाहिये ।। १७ ।।
( वायु और मनकी पुद्गलत्व सिद्धि। )- अब आप इस विषयमें ऐसा कहेंगे कि मनमें रूप स्पर्शादिक नहीं दिखते हैं। वायुमें स्पर्श दिखता है परंतु रूपादिक गुण नहीं दिखते है, अनुभवमें नहीं आते हैं। अतः मन और वायुको पुद्गलपना नहीं है। आचार्य उत्तर देते हैं" आपका कहना योग्य नहीं हैं; क्योंकि, वायुभी पुद्गल है उसमें रूपगुण है। परंतु वह अनुभूत हैं अप्रगट है। इसलिये वह आखोंसे नहीं दिखता।" हम अनुमानसे वायुमें रूपगुणकी सिद्धि करते हैं- जैसे · वायु रूपरसादि-गुणवाला है, क्योंकि, वह स्पर्शयुक्त है जैसे घडा।' अतः विद्वान लोग वायु स्पर्शवान् होनेसे उसे पुद्गलात्मा-रूपवान् मानते हैं यह बात प्रसिद्ध है। यदि आप इसके ऊपर फिरभी ऐसा कहोगे " वायु आखोंसे ग्रहण नहीं किया जाता । अतः उसमें रूपका अभाव है" यह आपका कहना योग्य नहीं है। यह आपका कहना अतिप्रसंगदोषसे दुष्ट है; क्योंकि, आप परमाणुओंमें रूप मानते हैं परंतु क्या वह आखोंसे दिखता है ? नहीं दिखता है। एतावता वायुमें रूप नही है ऐसा कहोगे तो परमाणुमेंभी रूप नहीं दिखता है । अत: परमाणु रूपगुणरहित मानो ऐसा हम कहेंगे जिससे परमाणुमें अतिप्रसंगदोष आवेगा । जब परमाणुमें आप रूपवत्व मानते हैं तो वायु, जो कि स्पर्शनेन्द्रियसे अनुभवमें आता है उसमें तो अवश्य रूपवत्व माननाही चाहिये । परमाणुको कोईभी इन्द्रिय नहीं जानती है। वायु तो स्पर्शनेन्द्रियसे जाना जाता है। अतः उसे रूपवान् मानना विरोधरहित है ।। २१ ॥
( जलादिकभी पुद्गल हैं। )- जैसा वायु रूपवान् है वैसा जलभी गंधयुक्त है; क्योंकि उसमें स्पर्शगुण है जैसा पृथ्वीमें है। अग्निभी रस और गंधसे युक्त है; क्योंकि वह रूपवान् है ।
१ आ. अस्मात्
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