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________________ २०६) सिद्धान्तसारः (९. १० यथा दर्शनविज्ञानसुखवीर्यचतुष्टयम् । जीवसाधारणं' तद्वत्स्वरूपादिचतुष्टयम् ॥ १० पुद्गलेऽपि मतं सर्व साधारणमतीन्द्रियम् । अणोरपि हि तच्छुद्ध जीवे ज्ञानादिवद्भवेत् ॥ ११ रागादिस्नेहयुक्तत्वात्कर्मबन्धव्यवस्थितौ । सज्ज्ञानादेरशुद्धत्वमात्मनोऽपि यथा भवेत् ॥ १२ स्निग्धरूक्षगणत्वेन द्विगणादौ व्यवस्थितेः । बन्धस्यास्यापि रूपादेरशद्धत्वं निगद्यते ॥ १३ यथा शुद्धात्मरूपस्य भावनाया बलेन च । रागादिस्नेहहानौ स्याज्ज्ञानादेः शुद्धतात्मनि ॥ १४ जघन्यैकगुणानां तदणूनां केवलात्मनाम् । बन्धाभावात्स्वरूपादेः शुद्धत्वं गदितं जिनैः ॥ १५ जीवेनैव समं तानि षड्द्रव्याणि जिनागमे । भूपयःपवनाग्नीनां मनसः पुद्गलात्मता ॥ १६ ( जीव पुद्गलोंका साधारणलक्षण। )- जैसे दर्शन, ज्ञान, सुख और शक्ति ये चार गुण समस्त जीवोंमें हैं, इसलिये उनको जीवके साधारण-गुण कहते हैं। वैसे संपूर्ण पुद्गलोंमें भी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये गुण रहते हैं, इसलिये ये पुद्गलके साधारण गुण हैं। जैसे शुद्ध जीवमें ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति ये चार गुण अतीन्द्रिय है वैसे पुद्गलाणुमें ये स्पर्शादिक चार गुण अतीन्द्रिय हैं। परमाणु इंद्रियोंसे नहीं जाना जाता है, वह अतीन्द्रिय हैं। जो अतीन्द्रिय पदार्थ होते हैं उनके गुणभी इंद्रियग्राह्य न होनेसे अतीन्द्रिय होते हैं। शुद्ध जीव इन्द्रियग्राह्य नहीं है। इसलिये उसके ज्ञानादि गुण अतीन्द्रिय होते हैं ॥ १०-११॥ पुद्गल में स्निग्धगुण और रूक्षगुण रहते हैं। इनसे बंध होता है। एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ इन गुणोंसे बंध होता है। तथा दो गुण अधिक जिसमें रहते हैं, वह परमाणु बंध योग्य होता है। अर्थात् जिसमें दो गुण कम हैं उसके साथ उसका बंध होता हैं। परंतु जब जिन दो परमाणुओंमे समगुण होंगे वे परमाणु रूपी कहे जाते हैं और ऐसे रूपी परमाणुओंको शुद्ध कहते हैं और उनका बंध नहीं होता है ॥ १२ ॥ ___ जब आत्माके सम्यग्ज्ञानादिक गुण रागादि-स्नेहसे युक्त होते हैं तब जीव कर्मोसे बद्ध होता है और आत्माके सम्यग्ज्ञानादिक गुणभी अशुद्ध होते हैं ॥ १३ ॥ जैसे शुद्ध आत्मस्वरूपकी भावनाका सामर्थ्य जब अत्यंत वृद्धिंगत होता है, तब रागादि स्नेहकी हानि होती है। जिससे आत्मामें ज्ञानादिक गुणोंकी निर्मलता होती है वैसे जिनमें जघन्य एक गुण है ऐसे अणुओंको केवल' कहते हैं। उनका किसीभी परमाणुके साथ बंध नहीं होता अतः उनके स्वरूपको उनके स्पर्शादिकोंको जिनेश्वरने 'शुद्ध' कहा है ॥ १४-१५ ॥ जीवके साथ धर्म, अधर्म आकाश, काल और पुद्गल इन द्रव्योंको जिनागममें षड्द्रव्य कहा है। तथा पृथ्वी, पानी, हवा-वायु अग्नि और मनको जिनागममें पुद्गल कहा है ॥ १६ ॥ १ आ. जीवे २ आ. मनसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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