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सिद्धान्तसारः
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रूपगन्धरसस्पर्शशब्दवर्णसमन्वितः । गलनात्पूरणाद्वापि पुद्गलः स' मतो जिनः ॥५ पुद्गलस्य च कायत्वं युक्तमन्येषु तत्कथम् । शरीराभावतस्तस्मादुपचारेण तद्भवेत् ॥ ६ पुद्गलप्रचयात्मत्वाच्छरीरं काय इष्यते । प्रदेशप्रचयात्मत्वात्तथान्ये चोपचारतः ॥ ७ यदुक्तं सूरिभिः पूर्वमसंख्येयाः प्रदेशकाः । धर्माधर्मकजीवानामसाधारणवर्तिनाम् ॥८ कायाभावश्च कालस्य होकप्रादेशिकत्वतः । अणोरपि भवेत्तस्याप्यणूनां हि तथा स्थितेः॥९
पुराना इत्यादि पदार्थोंकी अवस्थाओंकी उत्पत्तिमें जो सहायक है वह कालही ऐसा समझना चाहिये ॥ ४ ॥ ( वर्तनापरिणाम इस सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि टीका)
(पुद्गलका लक्षण । )- रूप, गंध, रस, स्पर्श, शब्द तथा वर्ण ऐसे गुणोंसे जो द्रव्य युक्त है अर्थात् जिसमें रूपादिक रहते हैं उसे पुद्गलद्रव्य कहना चाहिये। अथवा जिनमें गलन और पूरण होता है उन्हें पुद्गल कहते हैं। अर्थात् भेदसे, संघातसे और भेदसंघातसे जिनमें पूरण और गलन होता है उसे पुद्गल कहते हैं। यह पुद्गल शब्द इस प्रकारसे अन्वर्थक है । अर्थात् एक पुद्गलस्कन्ध फूटकर अलग होता है, तब उसकी गलन क्रिया हुई। दूसरे स्कन्धमें मिल जानेसे पूरणक्रिया उसने की और एकसे फूटकर दूसरेमें मिल जानेसे पूरण गलन दोनों क्रियायें हुई । इसलिये इस द्रव्यको जिनेश्वर पुद्गल कहते हैं ॥ ५ ॥
( अन्य द्रव्योंमें कायपना औपचारिक है। )- पुद्गलको कायपना है, यह योग्यही है; परंतु अन्यद्रव्योंमें कायपना कैसे समझना चाहिये? काय शब्दका अर्थ शरीर होता है, और पुद्गलके बिना अन्यद्रव्य शरीररहित होनेसे-शरीररूप न होनेसे उनको काय कैसे कहा जायगा? इस प्रश्नका उत्तर-उपचारसे अन्यद्रव्योंको काय कहना चाहिये । स्पष्टीकरण-शरीर पुद्गलसमूहरूप होनेसे उसको काय कहते हैं। वैसे प्रदेशोंका समूह धर्म, अधर्म आकाश और जीवोंमें पुद्गलके समान होनेसे इन द्रव्योंकोभी 'काय' कहना योग्यही हैं। अत एव धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य तथा एक जीव, जो कि असाधारण लक्षणयुक्त हैं, उनमें आचार्योंने असंख्यात प्रदेश कहे हैं ।। ६-८ ॥
( कालमें कायत्व नहीं है। )- कालद्रव्य एक एक अणुरूप है और उसमे एकप्रदेशसे अधिक प्रदेश रहतेही नहीं? परन्तु जो पुद्गलाणु हैं उसमें कायत्वभी है, क्योंकि अणु अन्य अणुओंसे रूक्षता और स्निग्धता गुण होनेसे मिलकर स्कन्धरूप होता है। वैसे कालाणु आपसमें अन्योन्यमें नहीं मिलते हैं। वे रत्नराशिके समान अलग रहते हैं। इसलिये कालाणुओंको उपचारसेभी काय नहीं कहते हैं ।। ९ ।।
१ आ. पुद्गलोऽसौ २ आ. अणोरिव
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