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________________ नवमोऽध्यायः। यो जीवनगुणाज्जीवस्तस्मादन्योऽभिधीयते । अजीव इति सूत्रज्ञः सामान्येन जिनागमे ॥ १ धर्माधर्मनभःकालपुद्गला इति पञ्चधा । विशेषेण पुनः प्राज्ञः कथितस्तत्त्ववेदिभिः ॥ २ जीवपुद्गलयोर्यों तौ गतिस्थितिनिबन्धनौ धर्माधर्मों तथाकाशमवकाशकलक्षणम् ॥ ३ वर्तनालक्षणः कालः स च कायविजितः । परे पञ्चास्तिकायाः स्युर्जीवतत्त्वसमन्विताः ॥ ४ नववा अध्याय। जीवनगुण-चेतना-ज्ञानदर्शनसे जो युक्त है उसे जीव कहते हैं। जिसमें जीवनगुण नहीं है उसे सूत्रज्ञ आचार्य जिनागममें सामान्यतया अजीवतत्त्व' कहते हैं ॥ १ ॥ स्पष्टीकरण- जीवका लक्षण उपयोग-ज्ञानदर्शनस्वरूपता कहा है। यह लक्षण जिसमें नहीं पाया जाता वह अजीव तत्त्व है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये अजीवतत्त्वके विशेष हैं। धर्म अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये अजीवतत्त्वके पांच भेद हैं ऐसा तत्त्वज्ञोंने कहा है ॥ २ ॥ (धर्माधर्मादि-द्रव्योंका लक्षण।)- जीव और पुद्गलोंकी गति होने में जो कारण हैं उसे धर्मद्रव्य कहते हैं, तथा जो इनके स्थितिके लिये कारण है उसको अधर्मद्रव्य कहते हैं । अर्थात् जीव और पुद्गलोंकी गतिमें जो द्रव्य सहायक होता है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। तथा जो उनकी स्थितिमें सहायक है वह अधर्मद्रव्य है। ऐसे इन द्रव्योंके लक्षण कहे हैं। तथा जो संपूर्ण द्रव्योंको- धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीवद्रव्योंको अवकाश अवगाह-स्थान देता है उसे आकाशद्रव्य कहते हैं ॥ ३ ॥ वर्तना यह लक्षण जिसका है ऐसे द्रव्यको द्रव्यकाल कहते हैं। वह कायरहित है। जीवतत्त्वके साथ धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य तथा पुद्गलद्रव्य ऐसे पांच द्रव्योंको ‘पंचास्ति काय' कहते हैं। जीवादिक द्रव्योंमें जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं उनकी उत्पत्तिमें जो असाधारणसाधकतम है उसको कालद्रव्य कहते हैं, जैसे दीपक अथवा प्रकाशके बिना अध्ययन नहीं होता इसलिये वह जैसा अध्ययनका साधकतम कारण है वैसा यह कालद्रव्य जीवादिकोंके पर्याय उत्पन्न होने में साधकतम है। उसके विना जीवादिकी पर्यायें उत्पन्नही नहीं होती। अतः वर्तना-पर्याय उत्पन्न करना यह कार्य जिस करणरूपके होनेसे होता है वह काल है ऐसा कालका लक्षण है। जो पदार्थों में नया, पुराना इत्यादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं उसे धर्मादिक द्रव्य कारण नहीं है, आकाशभी कारण नहीं है, वह केवल अवकाशदान देने का कार्य करता है। अतः कल, आज, नया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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