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-८. १४२)
सिद्धान्तसारः
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ततः परे च पश्यन्ति सर्वलोकाधि' पुनः । सम्यग्ज्ञानादिसद्धर्मप्रभावप्रभवा यतः ॥ १३५ तथा रत्नप्रभायां स नारकोऽवधिरुच्यते । योजनेकप्रमाणोऽसौ क्रोशालु हीयते ततः ॥ १३६ शक्राग्रमहिषी शक्रलोकपालामराश्च ते। दक्षिणेन्द्राश्च लौकान्ताश्च्युता निर्वृतिगामिनः॥१३७ आज्योतिष्काश्च ये देवास्तेऽनन्तरभवे न हि । शलाकापुरुषा ये तु केचिन्निर्वृतिगामिनः ॥१३८ सम्यग्दर्शनसज्ज्ञानसच्चारित्रविभूषिताः। निर्धूय सर्वकर्माणि निवृति यान्ति मानवाः ॥ १३९ अनन्तसुखनिर्मग्ना जरामृत्युविजिताः । अव्याबाधाश्च ते तत्र भाविनं कालमासते ॥ १४० यत्कन्दर्पसुखं लोके यच्च दिव्यं महासुखम् । न तन्मोक्षसुखस्यास्यानन्तभागो निगद्यते॥१४१
अहो धर्ममहो धर्म सद्रत्नत्रयलक्षणम् । ये श्रयन्ति महाभव्यास्तेषां किमिह दुर्लभम् ॥ १४२ है। और उसके बाद नव अनुदिश और पंचानुत्तरके देवोंका अवधिज्ञान सर्व लोककी मर्यादा धारण करनेवाला होता है। ये सब अवधिज्ञान सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप आदिक धर्माचारसे उत्पन्न होते हैं। इसलिये इनमें उपर्युक्त सामर्थ्य प्रगट होता है ।। १३०-१३५ ॥
( नारकियोंका अवधिज्ञान। )- रत्नप्रभा नामक पहले नरकमें नारकियोंको जो अवधिज्ञान होता हैं वह एक योजनतकका विषय जानता है। आगे दूसरे नरकसे सातवे नरकतक आधा आधा कोस कम होता है। अर्थात् दूसरे नरकमें साडे तीन कोस, तीसरे नरकमें तीन कोस, चौथे नरकमें ढाई कोस, पांचवे नरकमें दो कोस, छठे नरकमें डेढ कोस और सातवेमें एक कोसका होता है ।। १३६ ॥
( एक भव धारण कर मुक्त होनेवालोंका वर्णन । )- सौधर्मेन्द्र और उसकी अग्रमहिषी अर्थात् शची देवी, सौधर्मेन्द्र के लोकपालदेव-कुबेर, यम, वरुण और ईशान ये देव, दक्षिण दिशाके इन्द्र तथा लौकान्तिक देव ये स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्यभव धारण करते हैं और वे उसी भवमें कर्मक्षयसे मुक्त होते हैं ॥१३७ ॥
भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क देव वे अनंतरभवमें शलाका पुरुष नहीं होते हैं। अर्थात् तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र नहीं होते हैं। परंतु इनमेंसे कोई मनुष्यभवमें आकर मोक्षगामी होते हैं । १३८ ॥
( मोक्षप्राप्ति किनको होती हैं। )- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रोंसे भूषित हुए मानव सर्व कर्मोंका नाश कर मुक्तिको जाते हैं। मोक्षमें सिद्ध हुए जीव तत्काल और भावी कालमें अनंत सुखी होते हैं, जरामरणसे रहित होते हैं और बाधारहित होकर रहते हैं। उनका संपूर्ण भावी काल उपर्युक्त गुणोंसे परिपूर्ण होता है ॥ १३९-१४० ॥
( मोक्षसुख । )- जो जगतमें कामसुख है, तथा जो जगतमें दिव्य ऐसा महासुख है वह मोक्षसुखके अनंतवे अंशकाभी साम्य नही धारण करता ॥ १४१ ॥
उत्तम-अतिचाररहित रत्नत्रय लक्षण-धर्म आश्चर्यकारक और प्रशंसनीय धर्म है।
१ आ. सर्वे लोकावधिं २ आ. सुराः ३ आ. तेषां ४ आ. शक्रो ५ आ. दिव्य S.S. 26
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