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________________ २००) सिद्धान्तसारः (८. १२६ उपपादो' हि देवानां देवीनां च तथा पुनः । आ ईशानात्ततो नैव देवीनां ते निवेदिताः॥१२६ आरणाच्युतपर्यन्तं देवा गच्छन्त्यतः परम् । न गच्छन्ति न चायान्ति विज्ञेयमिति निश्चितम् ॥१२७ सद्वयन्तरकुमाराणामवधिः पञ्चविंशतिः। सङख्यातयोजनान्येष ज्योतिष्काणां जघन्यतः॥१२८ असुराणामसंख्यातकोट्यः शेषेषु सोऽवधिः । असंख्यातसहस्राणि ज्योतिष्काणां परो मतः ॥१२९ सौधर्मेशानदेवानामवधिः प्रथमावनिः । सनत्कुमारमाहेन्द्राः जानन्त्याशर्कराप्रभम् ॥ १३० ब्रह्मब्रह्मोत्तरे कल्पे लान्तवे तस्य चापरे । दिव्यावधिर्भवत्येषाभातृतीयावधिर्महान् ॥ १३१ आसहस्रारमेतेभ्यो जायतेऽवधिरुत्तमः । चतुर्थ नरकं तावदभिव्याप्नोति निर्मलः ॥ १३२ आनते प्राणते देवाः पश्यन्त्यवधिना पुरः । पंचमं नरकं यावद्विशुद्धतरभावतः ॥ १३३ आरणाच्युतदेवानां षष्ठीपर्यन्त इष्यते । ग्रैवेयकेषु सर्वेषु सप्तम्या विधितोऽवधिः ॥ १३४ देहवाले कहे जाते हैं। तथा जो अहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धिसे यहां मनुष्यजन्म धारण करते हैं, वे उसी भवमें मुक्त होते हैं; क्योंकि सर्वार्थसिद्धि यह नाम अन्वर्थक होनेसे वहांके अहमिन्द्र देव एकचरम होते हैं ।। १२५ ।। ( देव और देवियोंका उपपादस्थान। ) – देव और देवियोंके सौधर्म ऐशान तक उपपाद जन्मस्थान है। देवोंके तो सर्व स्वर्गों में उपपादस्थान है; परन्तु देवियोंके उपपादस्थान ऐशान स्वर्गके आगे नहीं है । नीचेके देव आरण अच्युतपर्यन्त जाते हैं और आते हैं, परंतु उसके ऊपर ग्रैवेयकादिकोंमें नीचेके देव न जाते हैं और न आते हैं ऐसा निश्चित है ॥ १२६-१२७॥ ( भवनत्रिकमें अवधिज्ञानकी मर्यादा। ) - व्यंतरदेवोंको पच्चीस योजनपर्यन्तका अवधिज्ञान होता हैं। जहां उनके अवधिज्ञानका उपयोग किया हो वहांसे पच्चीस योजनतकका क्षेत्र द्रव्य, काल और भाव उनके अवधिज्ञानका विषय होता है। ज्योतिष्कदेवोंका जघन्यसे अवधिज्ञान क्षेत्र संख्यात योजनोंका होता है। असुरकुमार देवोंका अवधिज्ञान क्षेत्र असंख्यात कोटि योजनोंका है। बाकी नागकुमारादिक नव भवनवासियोंका अवधिक्षेत्र असंख्यातसहस्र योजनोंका होता है । ज्योतिष्कदेवोंका उत्कृष्ट अवधिज्ञान असंख्यात सहस्र योजनोंका है ॥ १२८-१२९ ॥ ( कल्पवासि और कल्पातीत देवोंका अवधिज्ञान।) - सौधर्मशानदेवोंका अवधिज्ञानक्षेत्र पहला नरक है । वे पहले नरकमें अवधिज्ञानसे नारकियोंकी प्रवृत्तियाँ जानते हैं । सानत्कुमार और माहेन्द्रदेव शर्कराप्रभातक अवधिज्ञानसे जानते हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ट स्वर्गके देवोंका महान दिव्यावधिज्ञान तीसरे नरकतक है। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार ऐसे चार स्वर्गके देवोंका उत्तम निर्मल अवधिज्ञान चौथे नरकको व्यापता हैं। आनत प्राणत स्वर्गके देव विशुद्धतर परिणामोंसे पांचवे नरकतक देखते हैं। आरण और अच्युत स्वर्गके देवोंका अवधिज्ञान छठे नरकतक होता है। संपूर्ण ग्रैवेयकोंमें अवधिज्ञान सातवे नरकतक होता २ देव्यो ३ आ. न्त्यावालुकप्रभम् ४-५ आ. तावत, चान्तरे १ आ. उपपादा ६ आ. आनत प्राणते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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