SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२) ( ८. १४३ यदित्थमनुवादेन' किञ्चिदागमरूपतः । अविज्ञातपरार्थेन जीवतत्त्वं निरूपितम् ॥ १४३ अन्यानुवादतो नास्ति सा शक्तिर्मम वर्णने । जीवतत्त्वस्य सर्वस्याथवा ग्रन्थस्य गौरवात् ॥ १४४ सद्गुणाद्यनुवादेन जीवतत्त्वमनेकधा । यदुक्तं मुनिभिः पूर्वं तन्मया कथ्यते कथम् ॥ १४५ गुणस्थानानि चत्वारि देवानां नारकेषु च । तिरश्चां पंच विद्यन्ते मनुष्येषु चतुर्दश ।। १४६ इत्याद्यागमतः सर्वं ज्ञातव्यं तत्त्ववेदिभिः । न ज्ञातुं नैव कर्तुं वा शक्तोऽहं बुद्धिवजितः ॥ १४७ ज्ञात्वा जीवमजीवं जिनवरवरवीरभाषितं जगति । हिंसासत्यादीनां परिहारो युज्यते नृणाम् ॥ १४८ इसका जो महाभव्य आश्रय करते हैं उनको इहलोकमें कौनसी वस्तु दुर्लभ है ? सर्व उत्तम वस्तु इस श्रेष्ठ रत्नत्रयधर्म से प्राप्त होती है ॥ १४२ ॥ सिद्धान्तसार: जिसको जीवादि-पदार्थोंका ज्ञान नहीं है, ऐसे मैंने इस प्रकार अनुवादसे आगमद्वारा किञ्चित् जीवतत्त्वका निरूपण किया है । निर्देशादिक अनुयोगके आधारसे मैंने यह वर्णन किया है । सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शनादि अनुयोगोंके द्वारा जीवादितत्त्वोंका वर्णन करनेमें मैं असमर्थ हूं ।। १४३-१४४ । उत्तम गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास इत्यादिक अनुवादोंकी अपेक्षासे मुनियोंने जीवतत्त्वका अनेक प्रकारोंसे पूर्व कालमें वर्णन किया है । वैसा वर्णन करनेमें में समर्थ नहीं हूं ।। १४५ ( चतुर्गतिमें गुणस्थान । ) - देवोंमें मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि ऐसे चार गुणस्थान होते हैं । नारकियोंकोभी वेही चार गुणस्थान होते हैं । पशुओंको उपर्युक्त चार और पांचवा देशसंयम ऐसे पांच गुणस्थान होते हैं तथा मनुष्योंको चौदह गुणस्थान होते हैं ( इन गुणस्थानोंका वर्णन पूर्वमें आया है ) || १४६॥ ( ग्रंथकारकी नम्रता । ) - तत्त्व जाननेवाले आचार्योंको गुणस्थानादिकोंका सर्व स्वरूप आगमसे जानना चाहिये । उनका स्वरूप मैं जानने के लिये और कहनेके लिये असमर्थ हूं क्योंकि मैं बुद्धि रहित हूं ॥ १४७ ॥ जिनोंमें - मुनियोंमें वर-श्रेष्ठ ऐसे गणधरोंके नायक -स्वामी श्रीवीरप्रभुके द्वारा उपदेश गये जीव और अजीव तत्त्वोंको जानकर इस जगत में मनुष्योंको हिंसा, असत्य भाषण, चोरी आदि पातकोंका त्याग करना योग्य होता है, अर्थात जीवादिद्रव्योंका स्वरूप समझ हिंसादिकका क्यों त्याग करना चाहिये ? इस शंकाका स्पष्टीकरण हो जाता है । सम्यग्ज्ञान होने से जीव-राग-द्वेषादिकोंके कारण हिंसा, असत्य भाषणादिपापों का त्याग करता है । जिससे वह चारित्रसंपन्न, रत्नत्रययुक्त होकर शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्ति कर लेता है ।। १४८ ।। Jain Education International १ आ. इत्थं गत्यनुवादेन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy