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________________ ( ८. ८९ - पुरोहितमहामंत्रिस्थानीया ये दिवौकसः । त्रयस्त्रशत्सुसंख्यानास्त्रायस्त्रिशा भवन्त्यमी ॥ ८९ पीठमर्द्दनसङ्काशाः परिषत्परिवर्तिनः । देवाः पारिषदाः सर्वे तेऽत्र संवादिनो मताः ॥ ९० अङ्गरक्षसमाना ये ते सर्वे ह्यात्मरक्षकाः । लोकैकपालनोद्युक्ता लोकपाला भवन्त्यमी ।। ९१ सप्तानीsaisatarः प्रकीर्णाः पौरसन्निभाः । आभियोग्यमता दासा देवा देवगतावपि ॥ ९२ ये चान्तेवासिवनीचा दीनां दुर्गतिगामिनः । प्रायशो बहुदुःखार्ताः किल्बिषाः सम्प्रकीर्तिताः ॥ ९३ इत्येवं दशधा देवा निकायेषु निवेदिताः । लोकपालास्त्रयस्त्रशा न ज्योतिर्व्यन्तरेषु च ॥९४ द्वौ द्वाविन्द्रौ मतौ तेषु भावनव्यन्तरेषु च । सर्वेषां ज्योतिषामिन्द्रौ सूर्याचन्द्रमसौ पुनः ॥ ९५ १९६) सिद्धान्तसार: ३ त्रायस्त्रिश - पुरोहित तथा महामंत्रियोंके समान जो देव हैं, तथा जिनकी संख्या तेहतीसही नियत रहती है वे वायस्त्रिश देव हैं । ४ पारिषद - जो देव मित्र और हसी मस्करी करनेवालोंके समान सभामें बैठते हैं, तथा जो सभामें प्रामाणिक माने जाते हैं, उनको पारिषद देव कहते हैं । ५ आत्मरक्ष - अंगरक्षकोंके समान जो देव हाथमें शस्त्र धारण कर इन्द्र के पीछे रहते हैं, उनको आत्मरक्ष देव कहते हैं । ६ लोकपाल – प्रजाके समान देवोंको पालन करनेवाले देव लोकपाल कहे जाते हैं । ७ अनीक सात प्रकार के सैन्योंके समान जो देव होते हैं उनको अनीक देव कहते हैं । ८ प्रकीर्णक - प्रजाके समान जो देव हैं उनको प्रकीर्णक देव कहते हैं । ९ आभियोग्य – देवगतिके होनेपरभी जो देव दासके समान वाहनादि बनकर उच्च देवोंकी - अपने स्वामियोंकी सेवा करते हैं उनको आभियोग्य देव कहते हैं । - १० किल्बिषिक - जो अन्तेवासियोंके समान अर्थात् चाण्डालोंके समान नीच हैं, दीन है तथा दुर्गतिको जानेवाले हैं, प्रायः बहुदुःखोंसे पीडित हैं उनको किल्बिष कहते हैं । किल्बिषपाप जिनको है अर्थात् जिनको पापोंका उदय है ऐसे देवोंको किल्बिषक कहते हैं ।। ८९-९३ । ये दश प्रकारके देव चार निकायोंमें इस प्रकारसे कहे गये हैं । परंतु लोकपालदेव और त्रास्त्रिशदेव ये दो प्रकारके देव भवनवासि देव और व्यंतरदेवों में नहीं होते हैं । भवनवासिदेव और व्यंतरदेवोंमें दो दो इन्द्र माने हैं । तथा संपूर्ण ज्योतिष्कदेवोंके चन्द्र और सूर्य ऐसे दो इन्द्र माने गये हैं ।। ९४-९५ ।। Jain Education International स्पष्टीकरण - भवनवासी देवोंके दस भेद हैं और उनमें प्रत्येक भेदके दो दो इन्द्र है अतः भवनवासियोंके इन्द्र वीस हैं । व्यंतरोंके भेद आठ हैं तथा प्रत्येक भेदमें दो दो इन्द्र होने से व्यंतरोंके सब इन्द्र सोलह होते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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