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________________ -८. ८८) सिद्धान्तसारः (१९५ शतारे च सहस्रारे ते चाष्टादशसाधिकाः । आनतप्राणतद्वन्द्वे जीवितं विंशतिः परम् ॥ ८२ आरणाच्युतयुग्मे तवाविंशतिमुदीरितम् । एकैकं वर्द्धते तस्मान्नववेयकेषु च ॥ ८३ नवस्वनुदिशेष्वेतत् द्वात्रिंशत्परमं मतम् । अनुत्तरेषु सर्वेषु त्रयस्त्रिशन्नदीशिनः ॥८४ पूर्वस्वर्गे यदुत्कृष्टं जघन्यं हि तदुत्तरे। मुक्त्वा सर्वार्थसिद्धि च तस्यामुत्तममेव तत् ॥ ८५ प्रतरादिषु सर्वेषु विशेषो यस्तु कश्चन । सर्वो लोकानुयोगात्स ज्ञातव्यो नात्र गौरवात् ॥८६ इन्दन्त्यपरदेवानामसाधारणवृत्तितः। आजैश्वर्यगुणोपेता इन्द्रास्ते गदिता जिनः॥ ८७ 'सप्तधातुविनिर्मुक्ता गुरूपाध्यायवत्सदा । आयुर्वोर्यादिभिस्तेषां समाः सामानिका मताः ॥८८ शतार और सहस्रार स्वर्गके देवोंकी उत्तम आयु अठारह सागरोपमसे कुछ अधिक कही है । तथा आनत प्राणत स्वर्गों के देवोंकी उत्तम आयु वीस सागरोपमकी कही है । आरण और अच्युत स्वर्गों में देवोंकी उत्तम आयु बाईस सागरोपमोंकी होती है। तदनंतर नवग्रैवेयकोंमें एक एक सागर आयु बढती है, अन्तिम नववे ग्रैवेयकमें एकत्तीस सागरोपमकी उत्कृष्ट आयु है और नव अनुदिशोमें बत्तीस सागरोपमकी उत्तम आयु है। तथा सर्व अनुत्तरोंमें अर्थात् विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि में तेत्तीस सागरोपम उत्तम आयु है ॥८२-८४॥ (स्वर्ग, नवग्रैवेयक, नवानुदिश तथा सर्वार्थसिद्धिके बिना चार अनुत्तरोंमें जघन्य आयुका वर्णन।)- पूर्व स्वर्गमें जो उत्कृष्ट आयु होती है वह उत्तर स्वर्ग में जघन्य होती है ऐसा क्रम सर्वार्थसिद्धिको छोडकर चार अनुत्तर विमानोंतक समझना चाहिये। जैसे सौधर्म स्वर्गमें उत्कृष्ट दो सागर आयु है वही सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्गके देवोंकी जघन्य समझनी चाहिये । आरणाच्युत देवोंकी उत्तम आयु बाईस सागर है वही प्रथम अवेयककी जघन्य आयु समझनी चाहिये। नौवेवेयककी उत्तम आयु इकत्तीस सागरकी है वह अनुदिशोमें जघन्य समझना। अनुदिशोंकी बत्तीस सागर आयु उत्कृष्ट है वह चार अनुत्तरोंमें जघन्य समझे, परंतु सर्वार्थसिद्धिमें कभी जघन्य आयुबंधवाला जन्मही नहीं लेता है; इसलिये सर्वार्थसिद्ध देव उत्कृष्ट आयुके तेत्तीस सागर आयुवालेही होते हैं ।। ८५॥ संपूर्ण प्रतरादिकोंमें तथा स्वर्गपटलोंमें जो कुछ विशेष होता है वह सर्व लोकानुयोग ग्रंथसे जानना योग्य है । यहां विस्तारके भयसे हम नहीं कहते हैं ॥ ८६ ॥ ( देवोंके इन्द्रादि-दश-भेदोंका वर्णन । ) - १ इन्द्र -इतर देवोंमें नहीं पाये जानेवाले असाधारण अणिमामहिमादि गुणोंसे जो परमैश्वर्यवाले माने जाते है, जिनकी आज्ञा इतर देव शिरोधार्य समझते हैं, जो ऐश्वर्यगुणसे युक्त हैं ऐसे देव, जिनेश्वरके द्वारा इन्द्र कहे जाते हैं ॥८७॥ २ सामानिक देव- सब देव सप्तधातुओंसे रहित अर्थात् दिव्य शरीरवाले होते हैं, उनमें जो गुरु और उपाध्यायके समान हैं तथा जो आयु, वीर्य, परिवार तथा भोगोपभोगादि सामग्रियोंसे इंद्र के समान हैं परंतु आज्ञा और ऐश्वर्य जिनका इन्द्रके समान नहीं है ऐसे देवोंको सामानिक देव कहते हैं ॥ ८८ ॥ १ आ. आज्ञैश्वर्यविनिर्मुक्ताः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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