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________________ -८. १०७) सिद्धान्तसारः (१९७ आ ऐशानान्मता देवाः सङक्लिष्टपरिणामतः । कायेनैव प्रवीचारं प्रकुर्वाणा मनुष्यवत् ॥९६ सानत्कुमारमाहेन्द्रद्वये देवा भवन्त्यमी । दिव्यदेवाङ्गनास्पर्शमात्रेणापि' सुनिर्वृताः ॥ ९७ ततः कापिष्टपर्यन्ते देवा देवीविलोकनात् । परमं सुखमायान्ति बहुपुण्यमनोरमाः ॥ ९८ आसहस्रारमत्यन्तमधुरस्वरमात्रतः । देवीनां सौख्यमञ्चन्ति देवा दिव्याङ्गधारिणः ॥ ९९ अच्युतान्तेषु सर्वेषु तदूर्ध्व स्मरणादपि । देवीनां दिव्यरूपाणां सुखिनः सर्वदैव ते ॥ १०० अच्युतादूर्ध्वतः सर्वे प्रवीचारविजिताः । सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं सडक्लेशापगता यतः ॥ १०१ भावनेष्वसुराणां हि प्रमाण पञ्चविंशतिः । धनुषाणि तु देहस्य कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १०२ धनंषि दश शेषाणां व्यन्तराणां च दर्शनम् । ज्योतिष्काणां च सप्तैव धनूंषि कथितं वपुः ॥१०३ सौधर्मशानयोः सप्तहस्तो देहो निगद्यते । सनत्कुमारमाहेन्द्रयुग्मे हस्ताश्च षट् पुनः ॥ १०४ ततः कापिष्टपर्यन्तं पंचहस्ताः प्रमाणतः । देहमानं च देवानां दिव्यरूपैकधारिणाम् ॥ १०५ आसहस्रारमस्माच्च देवानां देह उच्यते । चतुर्हस्तप्रमाणश्च स्फुरद्युतिसमन्वितः ॥ १०६ आनतप्राणतद्वन्द्वे सार्द्धहस्तप्रमाणतः । आरणाच्युतयोर्हस्तत्रयं देहो दिवौकसां ॥ १०७ (प्रवीचारयुक्त और अप्रवीचारयुक्त देवोंका वर्णन।)- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव तथा सौधर्म और ऐशान स्वर्गवासी देव ये संक्लेशयुक्त परिणाम होनेसे मनुष्योंके समान शरीरकेद्वारा मैथुनसेवन करते हैं। सानत्कुमार और माहेन्द्र-स्वर्ग में जो देव हैं वे दिव्य ऐसी देवाङ्गना ओंके स्पर्शमात्रसे अतिशय सुखी होते हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ट स्वर्गतक देव, जो कि विशाल पुण्यसे मनोहर हैं, वे देवियोंको देखकर अतिशय सुखी होते हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्गतकके दिव्यांगधारक देव देवियोंके अत्यन्त मधुर स्वर सुनकर सुखी होते हैं। सहस्रार स्वर्गके ऊपर आनत-प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गके देव देवियोंके दिव्यरूप का स्मरण कर सर्वदा सुखी होते हैं। अच्युत स्वर्गके ऊपर सर्वार्थसिद्धितक जो अहमिन्द्रदेव हैं, वे प्रवीचारकामसेवासे वर्जित-रहित हैं अर्थात् उनके संक्लेशपरिणामोंका अभाव हैं। क्यों कि उसके सद्भावमें कामेच्छा प्रगट होती है ।। ९६-१०१॥ (देवोंके देहोंकी उच्चताका वर्णन।)- भवनवासियोमें असुरोंके देह पच्चीस धनुष्य प्रमाणके होते हैं ऐसा पूर्वाचार्य कहते है। नागकुमारादि नौ भवनवासि देव तथा व्यंतरदेवोंके देहका उत्सेध दश धनुष्य-प्रमाण होता है। ज्योतिष्क देवोंके शरीरकी ऊंचाई सात धनुष्य प्रमाण है। सौधर्मेशान स्वर्गके देवोंकी शरीरकी ऊंचाई सात हाथकी हैं। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देवोंके शरीर छह हस्तप्रमाण हैं। अनंतर दिव्य-रूपकोही धारण करनेवाले कापिष्ठ स्वर्गतक देवोंकी शरीरकी ऊंचाई पांच हस्त प्रमाणकी है। कापिष्ठ स्वर्गके सहस्रारस्वर्गतकके सुंदर, कान्तियुक्त देवोंके देहकी ऊंचाई चार हस्त प्रमाणवाली है। आनत प्राणत स्वर्गके देवोंके शरीर साडेतीन ...... १ आ. दिव्या २ आ. कल्पेषु ३ आ. देवताः ४ आ. सर्वप्रवीचारविजिताः ५ आ. तथा दर्श ६ आ. हस्ताः ७ आ. हस्तत्रयं मतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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