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________________ १९० ) सिद्धान्तसारः ( ८. ३० ततः प्रभृति लोकोऽयमादित्येऽधं प्रयच्छति । परमार्थमजानन्तस्तत्र' जनेश्वरं महः ॥ ३० योजनानां सहस्राणि नवतिश्चतुरुत्तरा । पञ्चविंशतियुक्तानि तथा पञ्चशतानि च ॥ ३१ दक्षिणायनसंरंभे ह्याद्यमार्गावलम्बिनः । रवेर्धर्मस्य विस्तारः पौर्वापर्येण सम्मतः ॥ ३२ अष्टादशमुहूर्तेः स्याद्दिवसस्तत्र विस्तृतः । रात्रिर्द्वादशभिः प्रोक्ता मुहूर्तस्तत्प्रकर्षतः ॥ ३३ तन्मुहूर्तद्वयस्यैकषष्टिभागीकृतस्य च । भागेको हीयते तस्माद्दिवसं दिवसं प्रति ॥ ३४ क्रमादातपहानौ च' सङक्रान्तौ मकरस्य च । यावत्पयोनिधावन्त्ये मार्गे सूर्योऽधिगच्छति ॥ ३५ सहस्राणां त्रिषष्टिः स्याद्योजनानि तु षोडश । तत्रादित्यविमानस्य धर्मविस्तार इष्यते ॥ ३६ द्वादशभिर्मुहूर्तेः स्याद्दिनं' रात्रिस्तु जायते । अष्टादशमुहूर्तेश्च जघन्येनोत्तरायणे ॥ ३७ कोटिकोटिस्तु षट्षष्टिः सहस्राणि तथा नव । शतानि पञ्चसप्तत्या समं चन्द्रस्य तारकाः ॥ ३८ अष्टाशीतिग्रहाणां च नक्षत्राण्यष्टविंशतिः । इत्येवं परिवारोऽपि चन्द्रस्यैकस्य कथ्यते ॥ ३९ सर्वज्योतिविमानानां पीष्ठर्द्धकपित्थवत् । तस्योपरि तथा सन्ति प्रासादाश्च यथाभवम् ॥ ४० लोगभी सूर्यको अर्घ्य देने लगे । सूर्यविमानमें जिनबिंब है और उसको भरतचक्रवर्ती पूजता है, अर्ध्य देता है इस परमार्थ अभिप्रायको लोगोंने नहीं जाना ।। २८-३० ।। ( पहले मार्गपर आने से सूर्यका प्रकाश कितने योजन फैलता है ? ) - दक्षिणायन के प्रारंभ में जब सूर्य प्रथम मार्गका आश्रय लेता है तब सूर्यका जो प्रकाश आगे और पीछे फैलता है उसका विस्तारप्रमाण चौरानवे हजार पांचसौ पच्चीस योजनोंका होता है ।। ३१-३२ ।। ( दक्षिणायनमें रात्रि और दिनका प्रमाण । ) - दक्षिणायन के प्रारंभ में अठारह मुहूर्तोंका दिवस होता है और रात्रिका प्रमाण दिनका प्रकर्ष होनेसे बारह मुहूर्तका रह जाता है ॥ ३३ ॥ तदनंतर दो मुहूर्तके इकसठ भाग करने चाहिये और प्रत्येक दिनमें एक एक भाग कम कम होता जाता है । इस प्रकार क्रमसे सूर्य के प्रकाशकी हानि होती जाती है और मकरसङक्रान्तिके समयमें जब सूर्य लवणसमुद्रके अन्त्यमार्ग में चला जाता है, तब सूर्यके विमानका प्रकाशविस्तार त्रेसष्ट हजार सोलह योजन प्रमाणवाला होता है । और उस समय दिन बारह मुहूर्तका होता है और रात्रि अठारह मुहूर्तकी होती है । अर्थात् उत्तरायणके प्रारंभ में दिन रात्रिकी जघन्यतया ऐसी परिस्थिति होती है ।। ३४-३७ ॥ ( चन्द्रके तारका, नक्षत्र, ग्रहादिपरिवारका वर्णन । ) - एक चन्द्रका तारकापरिवार छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोडाकोडी है । तथा ग्रहोंका परिवार अठासी और नक्षत्रोंका अट्ठाईस है ।। ३८-३९ ।। ( देखो ति. प. भाग २ अ. ७ गाथा ७१ पृ. ६६१ ) संपूर्ण ज्योतिविमानों का तलभाग आधे कैथके समान है और उसके ऊपर यथायोग्य प्रासादोंकी रचना है ॥ ४० ॥ १ आ. अजानानः २ आ. तु ३ आ. अभिगच्छति Jain Education International ४ आ. दिवसो ५ आ. सु. For Private & Personal Use Only ६ आ. भवेत् www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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