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________________ -6.48) सिद्धान्तसार: ( १९१ सर्वोऽपि वर्तुलाकारो गोलको मिलितोऽपि सः । मध्याह्णे वा पराह्णे वा पूर्वाह्णे वृत्तदर्शकः ॥ ४१ मानुषोत्तर शैलाद्या विद्यन्ते द्वीपवेदिकाः । तस्याः सहस्रपञ्चाशद्योजनानि पयोनिधौ ॥ ४२ वलयाकारसत्पङ्क्त्या क्षेत्रं वेष्टय समन्ततः । आदित्याश्च तथा चन्द्राः सर्वे तिष्ठन्ति निश्चलाः ॥४३ चतुर्भिरधिका तावच्चत्वारिंशच्छतं तथा । सन्त्यत्र वलये सर्वचन्द्राश्च बहुशोभनाः ॥ ४४ लक्षे लक्ष ततः सन्ति योजनानां गते सति । सूर्याणां च तथेन्दूनां वलयानि यथाक्रमम् ॥ ४५ परं विशेष एवायं वलये वलये स्वतः । सूर्याश्चन्द्राश्च चत्वारो वर्द्धन्ते यावदष्टमम् ॥ ४६ अष्टमाच्च पुनस्तस्मात्प्रथमं वलयं भवेत् । आद्याद्विगुणसूर्येन्दुसहितं साधवो जगुः ॥ ४७ लक्ष लक्षे ततः सन्ति वलया' येषु केवलं । सूर्याश्चन्द्राश्च वर्द्धन्ते चत्वारो यावदन्तिमम् ॥ ४८ स्वयम्भू रमणाम्भोधेर्बहिर्या वज्रवेदिका । तावत्पर्यन्त एवायं ज्योतिष्कक्रम' इष्यते ॥ ४९ एकपल्योपमः कालस्तेषां समधिकः कियान् । आयुरुत्कृष्टमाख्यातं तदष्टांशो जघन्यकम् ॥ ५० 'एकषष्टिविभागा ये योजनस्य विभाजिताः । षट्पञ्चाशद्विभागास्ते विमाना रोहिणीपतेः ॥५१ सर्वज्योतिष्क देवके विमान वर्तुलाकार गोलकरूप है । तथा मध्याह्न में, अपराह्न में और पूर्वाह्न में वे गोलही दिखते है ।। ४१ ।। मानुषोत्तर पर्वतसे आगे जो द्वीपोंकी वेदिकायें हैं उनमें पचास हजार योजनके अन्तरपर चन्द्र और सूर्योके वलय हैं । तथा मानुषोत्तर पर्वतके आगे जो जो समुद्र हैं उनमें भी पचास पचास हजार योजनोंके अन्तरपर चन्द्रसूर्योके वलय हैं और वे उतना उतना क्षेत्र वेष्टित करके रहते है | संपूर्ण वलयोंमेंसे प्रत्येक वलय में एकसौ चवालीस चन्द्र और सूर्य हैं । तदनन्तर एक एक लाख योजन अन्तर चलकर जानेमें सूर्य और चन्द्रके क्रमसे वलय होते हैं । परंतु विशेषता यह है, कि प्रत्येक वलय में चार चन्द्र और चार सूर्य बढते हैं । ऐसा बढना आठवे वलयतक होता है । आठवे वलय के अनंतर पुनः पहिला वलय होता है और वह वलय- प्रथम वलय दुगुने चन्द्र और सूर्योंसे सहित होता है ऐसा मुनिराज कहते हैं । फिर एक एक लाख योजनके फासलेपर एक एक वलय होता है । और उसमें चार सूर्य और चार चन्द्र प्रतिवलयमें बढते जाते हैं । यह बढना स्वयंभूरमण समुद्रकी जो बाहरकी वज्रवेदिका है वहांतक है ऐसा ज्योतिः क्रम समझना चाहिये ।। ४२-४९ ॥ ( ज्योतिष्क देवोंका उत्कृष्ट और जघन्य आयुष्य । ) - ज्योतिष्क देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम और कुछ अधिक है और जघन्य आयु पल्योपमका अष्टमांश है ।। ५० ।। ( चन्द्र के विमानका प्रमाण । ) - योजनके इकसठ विभाग करके उनमें से छप्पन विभागों का जो प्रमाण होगा उतने प्रमाणवाले चन्द्रोंके विमान होते हैं ॥ ५१ ॥ स्पष्टीकरण - चंद्र के विमानोंका विस्तार और दीर्घता ऊपर बताये हुए प्रमाणका अनुसरण करते हैं । और उनके विमानकी मोटाई योजनके इकसठ भागोंमेंसे अठाईस भागप्रमाण है । ये १ आ. वलयान्येषु २ आ. ज्योतिषां ३ आ. एकषष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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