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-८. २९)
सिद्धान्तसारः
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लोकान्ते बहिर्भागे सर्वे तावदवस्थिताः । विद्यन्ते प्रस्फुरज्ज्योतिःप्रकाशित दिगन्तराः ॥ २० जम्बूद्वीपे मतं प्राज्ञः सूर्यचन्द्रद्वयं द्वयम् । चत्वारश्च चत्वारो लवणाम्भोधिध्यगाः ॥ २१ आदित्याश्च तथा चन्द्राश्चत्वारिंशद्विरुत्तराः । कालोदाम्बुधिमध्यस्था निगद्यन्ते मनीषिभिः॥ २२ द्वादश द्वादश प्राज्ञैश्चन्द्रादित्या निवेदिताः । धातकीखण्डमध्यस्थाः परमोद्योतकारिणः ॥ २३ सप्ततिधिका प्रोक्ता पुष्करार्द्धेऽतिविस्तृते । चन्द्राणां भास्कराणां च तमस्तोमापहारिणाम् ' ॥२४ जम्बूद्वीपान्तरेऽशीतिर्योजनानां तथा शतम् । लवणाम्भोनिधौ त्रिंशत्सहितं च शतत्रयम् ॥ २५ चारक्षेत्रमिदं तावत्प्रथितं चन्द्रसूर्ययोः । समुदायेन पञ्च स्युः शतानि दशभिः समम् ॥ २६ चतुभिरधिकाशीतिः शतमादित्यवर्त्मनाम् । पंचदशैवं चन्द्रस्य कथितास्तत्र तद्विदैः ॥ २७ जम्बूद्वीपान्तरे तत्र सङ्क्रान्तौ कर्कटस्य च । दक्षिणायनसंरंभे ह्यादिमार्गेण गच्छतः ॥ २८ आदित्यस्य विमानस्थं जिनबिम्ब मिहाद्भुतम् । ज्ञात्वायोध्यास्थितश्चक्री ' भरतोऽघं प्रयच्छति ॥ २९
( ढाई द्वीपके बाहरके ज्योतिष्क देव स्थिर हैं । ) - मनुष्य लोकके बाहर के सर्व ज्योतिष्क देव स्थिर विद्यमान है, तथा स्फुरायमान कान्तिके द्वारा उन्होंने सब दिशायें उज्ज्वल की हैं ॥२०॥
( ढाई द्वीपों में चन्द्र और सूर्योकी संख्याका वर्णन । ) - जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं ऐसा विद्वानोंने माना है । लवणसमुद्रके मध्यमें चार चंद्र और चार सूर्य हैं । कालोदसमुद्रके मध्यमें बयालीस चन्द्र ओर बयालीस सूर्य हैं । धातकीखंडके मध्य में उत्तम प्रकाश करनेवाले बारह चंद्र और बारह सूर्य हैं | अतिशय विस्तृत पुष्करार्द्धद्वीप में बहत्तर चंद्र और बहत्तर सूर्य हैं। अंधकार नष्ट करनेवाले चंद्र और सूर्योकी इस प्रकार ढाई द्वीपमें संख्या कही है ॥२१ - २४॥
( जम्बूद्वीपमें और लवणसमुद्र में चंद्रसूर्योंका चारक्षेत्र ) - जम्बूद्वीपमें चंद्र-सूर्योका चारक्षेत्र एकसौ अस्सी योजनोंका है। तथा लवणसमुद्रमें चन्द्र-सूर्योका चारक्षेत्र तीनसौ तीस योजनोंका है । इस प्रकार चन्द्रसूर्योका चारक्षेत्र दोनोंका मिलकर समुदायसे पांचसौ दस योजनोंका होता । सूर्योके मार्ग एकसौ चौरासी हैं और चंद्रके मार्ग पंद्रह हैं, ऐसा ज्योतिर्विदोंका कथन है ।। २५-२७ ॥
( कर्कट क्रान्ति में सूर्य पहिले मार्गपर आता है ।) - जम्बूद्वीप के मध्य में कर्कट संक्रान्तिके समय में दक्षिणायनका आरंभ होता है । उस समय पहिले मार्ग से गमन करनेवाले सूर्यके विमानमें जो अद्भुत जिनबिंब है, उसे अयोध्या में तिष्ठा हुआ भरत चक्रवर्ती अर्घ्य देता है । तबसे सभी
१ आ. तमस्तोमापसारिणाम् २ आ. पंचदशैव
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३ आ. वध्या
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