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________________ -७. १६५) सिद्धान्तसारः (१७५ __ अक्षीणमहालय- इस ऋद्धिके मुनि जहाँ बैठते हैं वहां देव, मनुष्य, पशु सब यदि बैठ जाय तो भी वे परस्परोंको बाधा न देते हुए सुखसे बैठते हैं। ऐसे मुनिको अक्षीणमहालयमुनि कहते हैं। बलऋद्धि- मनोबल ऋद्धि, वचनबलऋद्धि और कायबलऋद्धि, गकर्मका और वीर्यान्तरायकर्मका क्षयोपशम परमप्रकर्षको प्राप्त होनेसे अन्तर्मुहूर्तमें संपूर्ण श्रुतज्ञानके अर्थका चिन्तन करनेमें चतुरता प्राप्त होती है। वचनबलऋद्धि- मनःश्रुतावरण, जिह्वाश्रुतावरण और वीर्यान्तरायकर्मका अतिशय प्रकर्षयुक्त क्षयोपशम होनेसे अन्तर्मुहूर्तमें संपूर्ण श्रुतका उच्चारण करनेका सामर्थ्य प्राप्त होता है। और सतत तथा उच्च उच्चारण करनेपरभी श्रमरहित और कंठमें विकाररहितपना उत्पन्न होता है। कायबलऋद्धि-वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे शरीरमें असाधारण सामर्थ्य उत्पन्न होता है। जिससे मासिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक आदि कालका प्रतिमायोग धारण करनेपरभी श्रम और थकावट आतीही नहीं - प्रसन्नता रहती है। __ औषधऋद्धि- आठ प्रकारकी होती है। जिनके हस्तपादादिक अवयवोंके स्पर्शसे असाध्य रोगभी नष्ट होते हैं वह आमीषध ऋद्धि है। जिनके मुखकी लाली औषधके समान रोग दूर करती है वे मुनि श्वेलौषर्धाद्धके धारक हैं। जिनके पसीनेमें मिली हुई धूलि रोगहरण करती है ऐसे मुनीश्वरोंको जल्लऋद्धिके धारक कहते हैं। जिनके कान, नाक, दन्त और आंखोंके मल औषधरूप हए हैं वे मल्लौषद्धिके धारक हैं। जिनकी विष्ठा औषधस्वरूप होकर रोग दूर करती हैं वे विडौषद्धिके धारक हैं । सर्वोषधिऋद्धि-जिनके अंग, प्रत्यंग, नख, केशादिक सर्व अवयव औषधरूप बने हैं तथा जिनको स्पर्श करनेवाले वायु जलादिकभी औषधमय होते हैं वे मुनि सर्वोषद्धिके धारक हैं। आस्याविषद्धि- उग्रविषयुक्त आहारभी जिनके मुखमें जानेपर निर्विष होता है अथवा जिनके मुखसे निकले हुए वचन सुनकर महाविषसे व्याप्त शरीरवालेभी जीव निर्विष होते हैं उनको आस्याविष मुनि कहते हैं। दृष्टयविष- जिनके दर्शनसे अति तीव्र विषसे दूषित लोगभी निर्विष होते हैं वे दृष्टयविष ऋद्धिके धारक हैं। तपोऽतिशद्धि- सात प्रकारकी है। १ उग्र तपऋद्धि- चतुर्थ, पष्ठ ( दो उपवास ) अष्टम (तीन उपवास) दशम ( चार उपवास) द्वादय (पांच उपवास) पक्ष (पंद्रह उपवास) और मास (एक महिनेके उपवास) इस प्रकारके उपवासोंमेंसे कोई एक प्रकारका उपवास आमरण करनेवाले मुनीश्वरोंको उग्र तपऋद्धिके धारक कहते हैं। २ दीप्ततपस्- महोपवास करनेपरभी जिनका मनवचनशरीर सामर्थ्य बढताही है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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