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सिद्धान्तसारः
(७. १६५
विक्रियाबुद्धिसत्क्षेत्रबलौषधितपोरसः । ऋद्धिमन्तो मताः सप्त प्रकारास्ते तथाविधैः ॥ १६५
दर्शनार्य-दश प्रकारके हैं। १ आज्ञा दर्शनार्य- भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ प्रणीत आज्ञामात्रको प्रमाण मानकर श्रद्धा करनेवाले आर्य आज्ञादर्शनार्य हैं। २ मार्गदर्शनार्य-परिग्रहरहित मोक्षमार्गका श्रवण करनेसे जिनको रुचि उत्पन्न हुई है, ऐसे आर्य मार्गदर्शनार्य हैं। ३ उपदेश दर्शनार्य-तीर्थकर बलदेव आदिकोंके शभचरित सननेसे जिनको श्रद्धा हई है वे उपदेशदर्शनार्य है। ४ सत्रदर्शनार्यदीक्षा, और मनियोंके आचारोंके सूत्रोंके श्रवणसे जिनको रुचि हई है ऐसे आर्योंको सुत्रादर्शनार्य कहते हैं । ५ बीजदर्शनार्य-बीजरुचि-बीजपदोंको ग्रहण करनेसे सूक्ष्मार्थका परिज्ञान होनेसे जिनको श्रद्धा होती है, वे बीजदर्शनार्य कहे जाते हैं। ६ संक्षेपदर्शनार्य-जीवादि पदार्थों के सामान्य उपदेशश्रवणसे जिनको सम्यग्दर्शन हुआ है ऐसे आर्योंको संक्षेपदर्शनार्य कहते हैं । ७ विस्तारदर्शनार्यअंग और पूर्वोके विषय भूत जीवादि पदार्थोंका विस्तार प्रमाण और नयोंके द्वारा सुननेसे जिनको श्रद्धा हुई है, ऐसे आर्य विस्तारदर्शनार्य हैं। ८ अर्थदर्शनार्य-वचनविस्तारसे रहित ऐसा अर्थग्रहण होनेसे जिनको श्रद्धा हुई हैं ऐसे आर्य अर्थदर्शनार्य हैं। ९ अवगाढदर्शनार्य- आचारांगादि द्वादशांगोंका ज्ञान होनेसे जिनके श्रद्धानमें दृढता आई है ऐसे आर्योंको अवगाढदर्शनार्य कहते हैं और १० परमावगाढदर्शनार्य- परमावधिज्ञान केवलज्ञानसे प्रकाशित जीवादिक पदार्थविषयक श्रद्धानको धारण करनेवाले आर्योंको परमावगाढ दर्शनार्य कहते है । ( राजवातिक अध्याय ३ रा आर्या म्लेच्छाश्च सूत्रका भाष्य )
( ऋद्धि प्राप्तार्योंके भेद । )- विक्रियाऋद्धि, बुद्धिऋद्धि, क्षेत्रऋद्धि, बलऋद्धि, औषधऋद्धि, तपऋद्धि और रसऋद्धि आदि ऋद्धियोंसे युक्त ऐसे आर्योंको ऋद्धिमदार्य कहते हैं॥१६५॥
विक्रियाऋद्धिमदार्य- अणिमा, महिमा आदिक आठ प्रकारकी विक्रिया है । छोटा रूप धारण करना, बडा रूप धारण करना, एक अनेक रूप धारण करना आदि विक्रियाके धारकोंको विक्रियाऋद्धिमदार्य हैं।
बुद्धिऋद्धिमदार्य-बुद्धिऋद्धि अठारह प्रकारकी है। केवलज्ञान,अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, पदानुसारित्व, संभिन्नश्रोतृत्व, दूरसे आस्वादन, दर्शन, स्पर्शन, घाण, श्रवण इनमें समर्थता, दशपूर्वित्व, चतुर्दशपूर्वित्व, अष्टांगमहानिमित्तज्ञत्व, प्रज्ञाश्रवणत्व; प्रत्येकबुद्धता और वादित्व । इन ऋद्धियोंको धारण करनेवाले आर्योंको बुद्धिऋद्धिमदार्य कहते हैं। सम्यग्ज्ञानाधिकारमें इनका वर्णन आया है।
क्षेत्रऋद्धि-के धारक आर्य दो प्रकारके होते है । अक्षीणमहानस और अक्षीणमहालय । अक्षीणमहानस- लाभान्तराय कर्मका क्षयोपशम जिनमें अतिशय प्रकर्षको प्राप्त हुआ है, ऐसे मुनिराजोंको जिस पात्रमेंसे आहार दिया जाता है उस पात्रका आहार चक्रवर्तीके संपूर्ण सैन्यकोभी दिया जाय तो भी कमी नहीं होता है। ऐसे मुनीश्वरको अक्षीणमहानसार्य कहते हैं।
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