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________________ १७६) सिद्धान्तसारः (७. १६५ - जिनका मुख दुर्गधरहित है, जिनका श्वासोच्छवास पद्मके समान गंधवाला होता है तथा जिनका शरीर कान्तियुक्त होता है वे दीप्ततप ऋद्धिके धारक मुनिराज हैं। ३ तप्ततपस्- तपे हुए कटाहपर पड़े हुए जलबिदु सूख जाते है वैसा जिन्होंने लिया हुआ आहार मलरुधिरादिरूपतासे परिणत नहीं होता है, वे मुनि तप्ततपस्ऋद्धिके धारक हैं। ४ महातपस्-सिंहनिःक्रीडितादि महोपवास करनेवाले मुनि महातप ऋद्धिके धारक हैं। ५ घोरतपस्- नाना प्रकारके रोगोंसे पीडित होनेपरभी उपवास कायक्लेशादि तपश्चरणको नहीं त्यागनेवाले मुनीश्वरको घोरतपऋद्धिके मुनि कहते हैं। ६ घोर पराक्रम- वे ही मुनि जब अपना उपवास कायक्लेशादि तप अधिकाधिक बढाते हैं तब उन्हें घोर पराक्रम ऋद्धि धारक कहते हैं । ___७ घोर ब्रह्मचारी- जिनका ब्रह्मचर्य अस्खलित होता है और जिनकी कभी दुःस्वप्न पडतेही नहीं वे घोरब्रह्मचारी हैं। ___ रसऋद्धिके छह भेद होते हैं- १ आस्यविष- उत्कृष्ट तपोबलके धारक मुनि 'तू मर' ऐसा जिसको कहते हैं वह तत्काल विषव्याप्त होकर मरता है ऐसे मुनीश्वरको आस्यविषऋद्धि होती है। २ दृष्टिविष- उत्कृष्ट तपस्वी क्रुद्ध होकर जिसे देखते हैं वह तत्काल उग्रविषसे व्याप्त होकर मरता है, ऐसे मुनि दृष्टिविद्धि के धारक समझना चाहिये। ३ क्षीरासावि- विरस अत्रभी जिनके हाथमें पडनेपर दूधके रससे परिणत होता है वे क्षीरास्राविऋद्धिके धारक हैं। अथवा जिनके वचन दूधके समान क्षीणलोगोंको संतुष्ट करनेवाले होते हैं वे क्षीरास्रावि मुनि हैं। ४ मध्वास्रावि- जिनके हाथमें पड़ा हुआ आहार नीरस होनेपरभी मधुररसवाला और शक्तिवर्धक होता हैं, तथा जिनके वचन दुःखपीडितोंको मधुके समान पुष्ट करते हैं वे मध्वास्रावि मुनिराज हैं। ५ सपिरास्रावि- जिनके हाथ में आया हुआ आहार नीरस होनेपरभी- रूक्ष होनेपरभी घीके समान रस और शक्तिवाला होता है अथवा जिनके वचन प्राणियोंको घीके समान सन्तोषप्रद होते हैं वे मुनि सर्पिरास्रावी ऋद्धिके धारक हैं । ६ अमृतास्रावि- जिनके हस्तपुटमें पडा आया हुआ अन्न अमृत हो जाता है अथवा जिनके भाषण अमृतके समान प्राणियोंपर अनुग्रह करते हैं वे अमृतास्रावी ऋद्धिके धारक मुनि हैं। तत्त्वार्थवर्तिकमें इन सात ऋद्धि के सिवाय क्रियाऋद्धि आठवी ऋद्धि मानी है। इस ऋद्धिके दो भेद हैं, चारणत्व और आकाशगामित्व। चारणभी अनेक प्रकारके हैं। जल, जंघा, तन्तू, पुष्प, पत्र, श्रेणि, अग्निशिखादिकोंका अवलंबन लेकर गमन करनेवाले चारणमुनि जलादिकमें, जमीनके समान पांव उठाकर रखते हुए गमन करते हैं। तथापि जलादिकोंके जन्तुओंको पीडा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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