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________________ १७०) सिद्धान्तसारः (७. १३७ तस्योपरि महापद्मवेदिका विद्यते परा । द्विक्रोशोत्सेधसंयुक्ता क्रोशपादं सविस्तरा' ॥ १३७ लक्षत्रयं सहस्राणि षोडशैव तथा पुनः । योजनानां शतद्वन्द्व सप्तविंशतिसंयुतम् ॥ १३८ गव्यूतित्रितयं तस्माच्छतं च धनुषां पुनः । अष्टाविंशतिसंयुक्तमङगुलानि त्रयोदश ॥ १३९ अडगुलार्द्धमिति ज्ञेयो जम्बूद्वीपस्य शोभनः । परिवेषोऽप्रमज्ञानः कथितो मुनिपुङ्गवः ॥ १४० जम्बूद्वीपपरिधिः ३१६२२७ यो. ३ गव्यू. १२८ ध. १३ अंगुलानि तथा अर्धाङगुलम् ॥ पूर्वेण विजयद्वारं वैजयन्तं सुदक्षिणे । जयन्तं पश्चिमे भागे ह्यपराजितमुत्तरे ॥ १४१ तद्वहिः सुमहाँल्लक्षत्रयं वलयविस्तृतः । जलोत्सेधः सहस्राणि योजनानां हि षोडश ॥ १४२ विद्यते लवणाम्भोधेर्बहुधा कौतुकावहः । लक्षयोजनगम्भीरो' वडवाग्निसमन्वितः ॥ १४३ ततोऽस्ति धातकीखण्डो द्वीपो मेरुयुगान्वितः । योजनानां चतुर्लक्षवलयविस्तृतो महान् ॥१४४ चतुभिरधिकाशीतिर्योजनानां समुन्नतम् । क्षुद्रं मेरुद्वयं तत्र विद्यते विस्मयावहम् ॥ १४५ समुद्रको मर्यादाभूत है। यह तट प्रारंभमें बारह योजनोंका है, ऊपरके भागमें चार योजनोंका और मध्यभागमें आठ योजनोंका । इस तटके ऊपर सुंदर महापद्म नामकी वेदिका है। वह दो कोश उंचाईको धारण करती है। और पाव कोसकी रुंद है ।। १३५-१३७ ॥ इस तटका परिक्षेप तीन लाख सोलह हजार दोसौ सत्ताईस योजन तीन गव्यूति (तीन कोस) एकसौ अट्ठाइस धनुष्य तेरह अंगुल और अर्धाङगुल अधिक इतना है (राजवार्तिकमें तेरह अंगुलके अनंतर अर्धांगुलसे कुछ अधिक अंगुल ऐसा उल्लेख है ) ॥ १३८-१४० ॥ इस तटको पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चार दिशाओंमें क्रमसे विजयद्वार, वैजयन्तद्वार, जयन्तद्वार और अपराजित द्वार ऐसे चार द्वार हैं ।। १४१ ।। उस तटके बाहर महान् तीन लाख योजनोंकी और वलयाकार विस्तृत ऐसी लवणसमुद्रकी जलकी ऊंचाई है, जो कि सोलह हजार योजन प्रमाणकी है और नाना प्रकारके कौतुक उत्पन्न करनेवाली है । यह लवणसमुद्र एक लाख योजन परिमाणकी गंभीरता धारण करता है और वडवाग्निसे युक्त है ॥ १४२-१४३ ॥ (धातकीखंडका संक्षेपसे वर्णन।)- लवणसमुद्रको जिसने घेर रखा है, ऐसा धातकीखंड चार लक्ष योजन परिमाणवाला वलयाकार विस्तृत है। इसमें चौरासी हजार योजन ऊंचे दो मेरु पर्वत हैं। जम्बूद्वीपस्थ मेरुसे छोटे होनेसे इनको क्षुद्र मेरु कहते हैं । लवणसमुद्र और कालोदसमुद्रकी वेदिकाको स्पर्श करनेवाले दो इष्वाकार पर्वत हैं, एक दक्षिण दिशामें और दूसरा उत्तर १ आ. सूविस्तरम् २ आ. द्वयं ३ आ. गम्भीर ४ आ. वलये. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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