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-७. १३६)
सिद्धान्तसारः
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वैजयन्ती जयन्ती च पुरी रम्यापराजिता । चक्रादिका पुरी पूता तथा खड्गपुरी परा॥१२६ अयोध्या च तथावध्या ज्ञातव्या सुमनीषिभिः। शेषं पूर्वविदेहस्य स्वरूपं पूर्वमेव तत् ॥ १२७ त्रयस्त्रिशत्सहस्राणि शतानि षट् तथा पुनः । चतुभिरधिकाशीतिः कलानां हि चतुष्टयम् ॥१२८ विदेहस्यापिविष्कम्भःकथितःकथितप्रियैः। जिनेन्द्रजितकौघेराधिविध्वंसकारिभिः॥१२९युग्मम् पूर्वापरविदेहे स्याच्चतुर्थेन समः सदा । कालः कोटिश्च पूर्वाणां जीवितव्यं नृणां परम् ॥१३० मेरोरुत्तरतो यानि क्षेत्राणि विविधानि च । विद्यन्ते तानि सर्वाणि दक्षिणानीव सर्वथा ॥१३१ केशर्यादिहृदेष्वताः केवलं सन्ति देवताः। आधे कीर्तिस्ततो बुद्धिर्लक्ष्मीश्चान्त्ये व्यवस्थिता ॥१३२ नरकान्ता च नारी च रूप्यकूला तथा पुनः । सुवर्णा च मता कूला रक्ता रक्तोदका पुनः॥१३३ रम्यकादिषु विद्यन्ते नद्यो नामविभेदतः । शेषं दक्षिणवत्सर्व जानन्ति यतिनायकाः ॥ १३४ चतुर्गोपुरसंयुक्तः प्राकारोऽस्ति महानघः । मर्यादायाः परं हेतुर्जम्बूद्वीपसमुद्रयोः ॥ १३५ योजनानि स विस्तीर्णो भूमुखे द्वादशैव हि । ऊर्ध्वभागे च चत्वारि तथाष्टौ मध्यमे पुनः ॥१३६
चक्रापुरी, पवित्र खड्गपुरी', अयोध्यापुरी और अवध्यापुरी ऐसी आठ नगरियां विद्वानोंको जानने योग्य हैं । अन्य सब स्वरूप पूर्वविदेहके समान हैं ॥ १२५-१२७ ॥
(विदेहक्षेत्रका विस्तार। )- विदेहक्षेत्रका विस्तार तेहतीस हजार छसौ चौरासी योजन और चार कला इतना है। जिन्होंने कर्मसमूह नष्ट किया है, जिनकी मानसिक व्यथा अथवा संपूर्ण परिग्रह नष्ट हुए हैं, जिनका कथन प्रिय है, ऐसे जिनेश्वरोंने इस प्रकार विदेहका विस्तार कहा है ।। १२८-१२९ ॥
पूर्वविदेहक्षेत्रमें और अपरविदेहक्षेत्रमें चतुर्थ काल सदा समान विद्यमान है और इन क्षेत्रोंमें रहनेवाले मानवोंका जीवितव्य अर्थात् आयु एक कोटिपूर्व वर्षोंकी है। यह उनके उत्कृष्ट आयुका प्रमाण कहा है ।। १३० ॥
( मेरुके उत्तर दिशाके क्षेत्रादिकोंका संक्षिप्त कथन।)- मेरुके उत्तर दिशामें जो अनेक क्षेत्र हैं, वे सर्वथा दक्षिणके भरतादिक क्षेत्रोंके समान समझने चाहिये। केसरी, पुण्डरीक और महापुण्डरीक सरोवरोमें देवतायें निवास करती है। केसरी सरोवरमें कीर्ति देवता, पुण्डरीकमें बुद्धि देवता और महापुण्डरीकमें लक्ष्मी देवता ऐसी देवतायें निवास करती हैं । १३१-१३२॥
नरकान्ता नदी, नारी, रूप्यकूला, सुवर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा ये नदियाँ रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रके बीचमेंसे बहती हुई पूर्वसमुद्र और पश्चिमसमुद्रमें प्रवेश करती हैं। बाकीका सर्व स्वरूप यतिनायक जिनेश दक्षिणके क्षेत्र, नदी, सरोवरादिकोंके समान जानते हैं ॥ १३३-१३४ ॥
(जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रके तटका वर्णन । )- जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रका जो तट है वह चार गोपुरोंसे विराजित है और अतिशय निर्दोष रचनावाला है। वह इस द्वीप तथा
२ आ. महानथ ३ आ. ष्टाबुदये मतः
१ आ. रघ S. S. 22
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