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________________ -७. ११५ ) सिद्धान्तसारः ( १६७ ततो वक्षारनामास्ति पर्वतोऽतः परं महत् । सुवत्सा नाम सत्क्षेत्रं कुण्डलापूः समन्वितम् ॥१०६ विभङ्गाख्या ततः सिन्धुस्तस्याः पश्चिमतः परम् । महावत्साभिधं क्षेत्रं यत्पू रस्त्यपराजिता ॥ १०७ ततो वक्षारनामास्ति पर्वतोऽतः परं महत् । प्रभाकरीपुरीयुक्तं सत्क्षेत्रं वत्सकावती ॥ १०८ विभङ्गाख्या ततः सिन्धुस्तस्याः पश्चिमतः परम् । रम्यानामधरं क्षेत्रं पुरी पङ्कावती' परा॥१०९ ततो वक्षारनामास्ति पर्वतोऽतः परं महत् । रम्यकानामसत्क्षेत्रं पद्माख्यपुरसंयुतम् ॥ ११० विभङ्गाख्या ततः सिन्धुस्तस्याः पश्चिमतः परम् । अस्ति रम्यामहाक्षेत्रं शुभानामपुरीयुतम् ॥ १११ ततो वक्षारनामास्ति पर्वतोऽतः परं महत् । मङ्गलादिवती क्षेत्रं यत्पुरं रत्नसञ्चयम् ॥ ११२ क्षेत्राणि षोडशैतानि मेरोः पूर्वगतानि च । तावन्त्यस्तेषु विद्यन्ते नगर्योऽप्यतिसुन्दराः ॥ ११३ द्वाविंशतिशतान्येषां समं द्वादशभिः पुनः । सर्वेषां विस्तरः किञ्चिदधिकः कथ्यते जिनैः ॥ ११४ शतानां नवकं तावद्वाविंशतिसमन्वितम् । सहस्रे द्वे च विस्तारो देवारण्यस्य कथ्यते ॥ ११५ २ उसके अनंतर वक्षार नामक पर्वत है और इसके अनंतर महान् सुवत्सा नामक उत्तम क्षेत्र है । उसकी राजधानी कुण्डला नामक नगरी है ।। १०६ ।। ३ विभंगा नामक नदीकी पश्चिम दिशामें महावत्सा नामक विशालदेश है । इस देशकी राजधानी अपराजिता नामक नगरी है ॥ १०७ ॥ ४ तदनंतर वक्षार नामक पर्वत है और इसके अनंतर वत्सकावती नामक देश है; जो कि प्रभाकारीनामक राजधानीसे युक्त है ॥ १०८ ॥ ५ तदनंतर विभंगा नामक सिन्धु नदी है । उसकी पश्चिम दिशामें रम्या नामक क्षेत्र है । उसमें पंकावती नामक उत्तम राजधानीका नगर है ।। १०९ ॥ ६ इसके अनंतर वक्षार पर्वत है । और उसके आगे रम्यका नामक उत्तम क्षेत्र ; जो कि पद्मपुरसे युक्त है ।। ११० ।। ७ इसके अनंतर विभंगा नदीको पश्चिम दिशामें रम्या नामक महाक्षेत्रमें शुभा नामक नगरी है ।। १११ ॥ ८ इसके अनंतर फिर वक्षार पर्वत है और उसके अनंतर मंगलावती नामक सुंदर देश है । उसमें रत्नसंचय नामक सुंदर राजधानीका नगर है ।। ११२ । ये सोलह क्षेत्र अर्थात् देश मेरूके पूर्वदिशा में हैं । और इन सोलह देशों में अतिशय -सुंदर सोलह राजधानीके नगर हैं ।। ११३ ॥ ये जो सोलह देश कहे हैं, उनका विस्तार बावीससौ वारा योजनोंसे किञ्चित् अधिकं है, ऐसा जिनेश्वरोंने कहा है ।। ११४ ।। देवारण्यका विस्तार दो हजार नौसौ बावीस योजन है, ऐसा जिनेश्वरोंने कहा है ।। ११५ ॥ १ आ. पुर्वपङ्कावती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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