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________________ १६६) सिद्धान्तसारः (७. ९७ ततो वक्षारनामास्ति पर्वतोऽतः परं महत् । क्षेत्र कच्छावती नाम गरिष्ठादिपुरीयुतम् ॥ ९७ विभङ्गाख्या ततः सिन्धुस्तस्याः पूर्व सुपुष्कलम् । आवर्ताख्यं महाक्षेत्रं खड्गनामपुरीयुतम् ॥९८ ततो वक्षारनामास्ति पर्वतोऽतः परं महत् । लागलावर्तकं क्षेत्रं मापूषानगरीयुतम् ॥ ९९ विभङ्गाख्या ततः सिन्धुस्तस्याः पूर्व सुपुष्कलम्। पुष्कलानाम तत्क्षेत्रं वृषभानगरीयुतम् ॥१०० ततो वक्षारनामास्ति पर्वतोऽतः परं महत । पुष्कलादिवतीक्षेत्रं यत्पुरी पुण्डरी किणी ॥ १०१ ततः पूर्वसमुद्रस्य समीपतरवति यत् । देवारण्यं च विस्तीर्णा वेदिका विद्यते परा ॥ १०२ सीतादक्षिणतो भान्ति क्षेत्राणि विविधानि च । नगराण्यपि तेषां हि विभागः कथ्यतेऽधुना ॥१०३ देवारण्याश्रिता या तु विद्यते वेदिका स्तुता । तस्याः पश्चिमतः क्षेत्रं वत्सानाम सुशोभनम् ॥१०४ सुसीमानगरीयुक्तं विचित्राश्चर्यकारकम् । प्राणिनां बहुपुण्येन निर्मितं वा विभाति यत् ॥१०५ ४ तदनंतर पुनः वक्षार पर्वत है। इसके आगे महान् क्षेत्र कच्छावती नामका है और उसमें गरिष्ठा नामक नगरी है ॥ ९७ ॥ ५ तदनंदर विभंगा नामक सिन्धु नदी है। तथा उसके पूर्व में विस्तृत आवर्त नामक महादेश है और उसमें ‘खड्गा' नामक नगरी ( राजधानी ) है ।। ९८ ॥ ६ पुनः वक्षार पर्वत है और उसके अनन्तर लांगलावर्त नामक क्षेत्र देश है उसके राजधानीका नाम मापूषा है ।। ९९ ॥ . ७ तदनंतर विभंगा नामकी नदी है और उसके पूर्व दिग्भागमें सुविस्तृत आवर्तक नामक महाक्षेत्र-देश है और उसकी राजधानीका नाम वृषभानगरी ऐसा है ॥ १०० ॥ ८ पुनः वक्षार पर्वत है और इसके अनंतर महान् पुष्कलावती नामक क्षेत्र है और उसमें पुण्डरीकिणी नामक नगरी है ॥ १०१ ॥ ( देवारण्य और उसकी वेदिका )- इसके अनंतर पूर्वसमुद्रके अधिक समीप देवारण्य नामक वन है और उसकी सुंदर वेदिका है अर्थात् वह वन उत्तम वेदिकासे सुशोभित है ॥१०२॥ ___ सीता नदीके दक्षिण तटपर अनेक क्षेत्र और उनकी नगरियाँ ( राजधानी ) शोभायमान है। अब उनका विभाग हम कहते हैं । १०३ ॥ देवारण्यके आश्रयसे जो उत्तम वेदी है उसकी पश्चिम दिशामें वत्सा नामक शोभायुक्त क्षेत्र देश है। उसकी राजधानी सुसीमा नामक नगरी है ॥ १०४ ॥ १ यह क्षेत्र नाना प्रकारके आश्चर्योंसे भरा हुआ है। जो मानो प्राणियोंके विपुल पुण्योंने उत्पन्न किया हुआसा शोभता है ।। १०५ ॥ १ आ. मयूषा २ आ. पुष्कलानामसत्क्षेत्र ३ आ. वर्तिनः ४ आ. देवारण्यस्य ५ आ. यानि ६ आ. शुभा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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