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________________ १६४) सिद्धान्तसारः (७. ७९ एकावशसहस्राणि' उपर्युपरि हीयते । यावत्सहस्रमेकं स्यान्मस्तके विस्तृतो महान् ॥ ७९ देवसम्भवनानेकविचित्राश्चर्यसङकुलः । तथा कृत्रिमसच्चैत्यगृहाणामालयोऽपि च ॥ ८० तस्योत्तरविभागे च दक्षिणे च सुशोभनम् । गजदन्तसमाकारं पर्वतानां चतुष्टयम् ॥ ८१ नीले च निषधे लग्नमग्रभागेन चायतम् । तिष्ठत्यकृतजैनेन्द्र चतुश्चैत्यालयान्वितम् ॥ ८२ तेषां द्वयोर्द्वयोर्मध्ये मेरोरुत्तरदक्षिणे । उत्कृष्टभोगभूसंज्ञमस्ति क्षेत्रद्वयं महत् ॥ ८३ उत्तरादिकुरुमरोरुत्तरं कथ्यते जिनः । दक्षिणं देवकुर्वाख्यं कल्पवृक्षसमन्वितम् ॥ ८४ उत्तरादिकुरोमध्ये मेरोरोशानदिक्पथे । सीतानीलान्तरे रम्ये जम्बूवृक्षोऽस्त्यकृत्रिमः ॥ ८५ हजार नव्वे योजन और एक योजनके ग्यारह भाग कर उनमें से दस भाग ग्रहण करना चाहिये।" ॥ ७७-७८॥ यह मेरु पर्वत दीवारके समान नही है। इसके ग्यारह हजार ऊंचीपर जानेसे इसका एक हजार योजनका विस्तार घटता है । घटते घटते मस्तकपर मेरुपर्वत एक हजार योजनका रह जाता है । इस मेरुके ऊपर देवोंके निवासस्थान आदि अनेक आश्चर्योंके स्थान है। अर्थात् यह अनेक आश्चर्यजनक वस्तुओंसे भरा हुआ है । तथा यह पर्वत अकृत्रिम सुंदर जिनमंदिरोंका स्थान है । अर्थात् सौमनस, भद्रशाल, नंदन और पाण्डुवनमें, प्रत्येकमें चार चार अकृत्रिम जिनमंदिर हैं ॥ ७९-८० ॥ इस मेरुके उत्तर विभागसे और दक्षिण विभागसे सुंदर चार गजदन्त पर्वत हैं, जो हाथीके दांतके आकार सदृश दिखते हैं । इसलिये ‘गजदन्त' ऐसा उनका अन्वर्थ नाम है।८१।। इन गजदन्त पर्वतोंके अग्रभाग नील और निषध पर्वतोंको स्पर्श करते हैं। तथा इन गजदन्त पर्वतोंपर चार अकृत्रिम जिनमंदिर हैं । अर्थात् प्रत्येक गजदन्तपर एक एक अकृत्रिम जिनमंदिर है ॥ ८२॥ मेरुपर्वतकी उत्तर दिशामें दो गजदन्त पर्वत हैं, और मेरुकी दक्षिणमें दो गजदन्त 'पर्वत हैं । इन दो दो गजदन्त पर्वतोंके बीच में अर्थात् मेरुके उत्तरमें और दक्षिणमें उत्कृष्ट भोगभूमि नामक दो बडे क्षेत्र हैं। उनमेंसे जो क्षेत्र मेरुकी उत्तरदिशामें है उसको जिनोंने उत्तरकुरु उत्तम भोगभूमि कहा है । और मेरुकी दक्षिण दिशामें जो है, उसे देवकुरु उत्तम भोगभूमि कहा है । ये दोनों भोगभूमियाँ दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे सम्पन्न हैं ॥ ८३-८४ ।। मेरुपर्वतकी ऐशानदिशामें उत्तर कुरुक्षेत्रमें सीतानदी और नीलपर्वतके सुंदर मध्यप्रदेशमें अकृत्रिम जम्बूवृक्ष है ॥ ८५ ॥ १ आ. एकादशांशहान्या. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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