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-७. ७८)
सिद्धान्तसार:
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निषधोऽप्युदयेऽभाणि योजनानां चतुःशती । विस्तरे तु सहस्राणि षोडशाष्टशतानि च ॥ ७० चत्वारिंशच्च विज्ञेया द्वयधिका च फलाद्वयम् । पूर्वापर समुद्रान्तं यावद्दीर्घेण सुस्थितः ॥ ७१ युग्मम् तस्य दक्षिणतः पूतो हरिवर्ष इतीरितः । मध्यमा भोगभूमिश्च कल्पवृक्षसमाकुला ॥ ७२ पल्योपमद्वयं तत्र जीवन्ति युगलानि च । द्विक्रोशोत्सेधयुक्तानि भोगयुक्तानि नित्यशः ॥ ७३ निषधस्थ हृदात्पूतादुत्तरेण' विनिर्गता । सीतोदेति नदी याति मध्ये देवकुरोः कियत् ७४ गजदन्तं विभिषा मुक्त्वा मेरुप्रदक्षिणा । सहस्रार्द्धेन विस्तीर्णा पश्चिमं याति वारिधि ॥ ७५ विदेहो भण्यते मध्ये नीलस्य निषधस्य च । यतो देहं विमुञ्चन्ति तीर्थेशा यत्र सर्वदा ॥ ७६ नाभिभूतोऽस्य विख्यातः सुवर्णाद्रिः सुशोभनः । उत्सेधेन सहस्राणां नवतिश्च नवाधिका ॥ ७७ अवगाहः सहस्रं स्यादादौ भूमिगतः पुनः । योजनानां सहस्राणि दश वृत्तो विराजते ॥ ७८
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निषध पर्वतकी उच्चता चारसौ योजन है । और उसकी चौडाई सोलह हजार आठसौ बियालीस योजन और दो कला है । यह पर्वत पूर्वसमुद्र और पश्चिमसमुद्रको अपनी दीर्घतासे स्पर्श करता है ।। ७०-७१ ।।
( हरिवर्ष क्षेत्रका वर्णन । ) - इस निषध पर्वतके दक्षिणमें हरिवर्ष नामक पवित्र क्षेत्र है । इसमें शाश्वत मध्यभोगभूमि है । इसमें दश प्रकारके कल्पवृक्ष हैं। यहां के भोगभूमिज मनुष्य और पशुओंकी आयु दो पल्योपम हैं । ये सब भोगभूमिज युगलरूपसे जन्म लेते हैं । इन युगलोंकी शरीरकी ऊंचाई दो कोसकी होती है । हमेशा उनको कल्पवृक्षसे नाना भोगोंकी प्राप्ति होती है ।। ७२-७३ ।।
( सीतोदानदी वर्णन | ) - पवित्र निषेध पर्वतके हृदयसे अर्थात् तिमिञ्छ सरोवरके उत्तर तोरणद्वार से सीतोदा नामक नदी निकली है । वह देवकुरुभोगभूमिके मध्यप्रांत में कुछ प्रवेश कर गजदन्त पर्वतको भेदकर मेरुका स्पर्श न करती हुई उसको प्रदक्षिणा देकर मुखमें गंचसौ योजन विस्तीर्ण होकर पश्चिम समुद्रको प्राप्त होती है ।। ७४–७५ ॥
( विदेह क्षेत्रमें सीता और सीतोदा नदी तथा मेर्वादिक पर्वत और विदेहके देशों का सविस्तर वर्णन | ) - नील और निषध पर्वतोंके बीचमें विदेह क्षेत्र है । इसमें हमेशा तीर्थकर देहका त्याग करके मुक्त होते हैं; इसलिये इस देशको जिनेश्वर विदेह कहते हैं ॥ ७६ ॥
इस विदेह क्षेत्रकी मानो नाभि ऐसा सुंदर और प्रसिद्ध मेरु पर्वत है । वह सुवर्णमय है । उसकी ऊंचाई निन्यानवे हजार योजन प्रमाणकी है । इस मेरुका अवगाह अर्थात् नीव जमीनमें एक हजार योजनकी है। तथा इसका जमीनपर विस्तार दस हजार योजनका है । यह सामान्य कथन ।। स्पष्टीकरण - तत्त्वार्थवार्तिकमें मेरुका जमीनपरका विस्तार सूक्ष्मतासे इस प्रकार कहा है- 'दश
१ आ. सुहृदात् २ आ. योजनार्द्धन ३ आ. भूमितले
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