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सिद्धान्तसारः
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षड्योजनसुविस्तारा' क्रोशाधिकतया पुनः । अर्धक्रोशावगाहा सा निर्गमे गदिता जिनैः ॥ ३७ पूर्वेण दिग्विभागेन पर्वतोपरि गच्छति । यावच्छतानि पञ्चैव योजनानां सुशोभना ॥ ३८ गंगाकूटसमीपे सा व्यावर्त्य दक्षिणेन तु । भूमिकुण्डे पतत्याशु सुविस्तीर्णे सुशोभने ॥ ३९ तस्य दक्षिणमार्गेण विनिर्गत्याभिगच्छति । भरतक्षेत्रमध्यस्थं रूप्याद्रि रूपसंयुतम् ॥ ४० पूर्वापरमभिव्याप्य समुद्रान्तं स्थितो हि सः । विजयस्यार्द्धभागे यद्विजयार्ध इतीरितः ॥ ४१ पञ्चविशतिरित्येव योजनान्युदये मतः । विस्तरेण तु पञ्चाशद्योजनानि जयावहः ॥ ४२ अधस्ताद्योजनान्यस्य दशमत्वात्सुशोभने" । विभागे श्रेणयः सन्ति विद्याधरसमाश्रयाः ॥ ४३ नगर्यः सन्ति पञ्चाशद्दक्षिणश्रेणिसंश्रिताः । उत्तरश्रेणिगाः षष्टिविचित्रजनसंकुलाः ॥ ४४ द्वितीयदशके सन्ति विचित्राकारधारिणः । व्यन्तराणां समावासा नवकूटानि मस्तके ॥ ४५ नव सिद्धकूटेऽस्ति पूर्वस्यां दिशि शोभने । जिनचैत्यगृहं रम्यमकृत्रिममनिन्दितम् ॥ ४६
-७. ४६)
नामक हृद है, उससे गंगा नामकी प्रसिद्ध नदी उसके पूर्वतोरणसे निकलती हैं । उग्दमस्थान में गंगानदीका विस्तार छह योजन और एक कोश अधिक अर्थात् सव्वा छह योजन प्रमाणका है । तथा वह आधा क्रोश अवगाहवाली है ऐसा जिनोंने कहा है । वह सुंदर नदी पर्वतपरसे पूर्वदिशा के तरफ पांचसौ योजनतक बहती है । अनंतर गंगाकूट के समीप पहुंचकर वह दक्षिण दिशाको मुडती है । और वही सुंदर तथा सुविस्तीर्ण ऐसे भूमिकुण्ड में गिरती है। उसके दक्षिण मार्गसे निकलकर वह नदी भरतक्षेत्र के मध्यस्थित सुंदर रूप्याद्रि पर्वतके पास आती हैं ।। ३६-४० ।।
( विजयार्द्धपर्वतका वर्णन । ) - यह विजयार्द्धपर्वत समुद्रके पूर्व और पश्चिम विभागको व्याप्त कर रहा हैं अर्थात् पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्र में विजयार्द्धके तट प्रविष्ट हुए हैं। इसको विजयार्द्ध नाम अन्वर्थक हैं । क्योंकि चक्रवर्तीके विजयका आधा भाग यहां पूर्ण होता हैं इसलिये इसे विजयार्द्ध कहते हैं । यह पर्वत पच्चीस योजन ऊंचा है और इसका विस्तार पचास योजनोंका है । चक्रवर्तीको विजयप्राप्ति करानेवाला यह पर्वत है । जमीनसे दश योजन ऊपर जानेपर पर्वतके विभागपर विद्याधरोंके आधारस्थानरूप श्रेणियाँ है । उनमें दक्षिणश्रेणिमें पचास नगरियां हैं । और उत्तर श्रेणीमें नानाजनोंसे व्याप्त ऐसी साठ नगरियां हैं ।। ४१- ४४ ॥
विद्याधरश्रेणीके ऊपर पुनः दशयोजन गमन करनेपर व्यन्तरदेवोंके विचित्र आकृति के धारक निवासस्थान हैं । अर्थात् जैसी दो विद्याधरश्रेणियां कही है वैसीही दश योजन विस्तारवाली और पर्वतकी जितनी लंबाई है उतनी दीर्घतावाली व्यंतरोंकी दो श्रेणियां है। वहां सोम, यम, वरुण और वैश्रवण ऐसे इंद्रके लोकपाल और आभियोग्य जातीके व्यंतरदेवोंके निवासस्थान हैं । इस पर्वत के ऊपर नौ कूट हैं । उनमेंसे आठ कूटोंपर दक्षिणार्धभरत, वृत्तमाल्यदेव आदिकों के प्रासाद हैं । उनमें उन उन नामोंके देव रहते हैं । नौवे कूटपर सिद्धकूट नामका अकृत्रिम जिनमंदिर है ।। ४४–४६ ॥
१ आ. षड्योजनानि विस्तारः २ आ. समीपात् ३ आ. तस्मात् ४ आ. रित्येवं ५ आ. दश गत्वा
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