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________________ १५०) सिद्धान्तसारः (६. ५९ चतुर्थे प्रतरे तस्याः पूर्वकोटिर्जघन्यकम् । दशमो भाग उत्कृष्टं सागरस्येह कथ्यते ॥ ५९ आयुस्त्रयोदशे ज्ञेयमुत्कृष्टं सागरोपमम् । जघन्यं तस्य भागायुर्नवैवेति सुनिश्चितम् ॥ ६० पञ्चमे च जघन्यं तद्यदुत्कृष्टं चतुर्थके । तावेव द्वौ विभागौ स्यादुत्कृष्टं तस्य' जीवितम् ॥६१ परेष्वेकोत्तरा वृद्धिर्भागानामिह निश्चिता । आयुर्जघन्यमुत्कृष्टं तथा तेषु निगद्यते ॥ ६२ ऊर्ध्वक्षितिस्थितेर्यस्तु विशेषः प्रतरर्हतः । स्वकीयैर्गुणितः स्वेच्छं तेनामोत्कृष्टमिष्यते (?)॥६३ नित्याशुभतरा लेश्यास्तेषु ते सन्ति नारकाः । स्वभाववेदनादेहविक्रियादुष्टभागिनः ॥ ६४ ।। प्रथमायां द्वितीयायां सर्वे कापोतलेश्यकाः । नारकाः सन्ति दुःखार्ताः पच्यमानाः पदे पदे ॥६५ उपरिष्टात्तृतीयायां जीवाः कापोतलेश्यकाः । अधस्तान्नीललेश्याःस्युमिथ्यात्वचलभावनाः ॥६६ .................................. प्रतरमें जघन्य आयु तीन अंश है उत्कृष्ट आयु चार अंश है। आठवे प्रस्तारमें सागरके चार अंश जघन्य आयु है और सागरके पांच अंश उत्कृष्ट आयु है । नौवे पाथडेमें जघन्य आयु पांच अंश है उत्कृष्ट आयु छह अंश है । दसवे प्रतरमें जघन्य आयु छह अंश है और उत्कृष्ट आयु सात अंश है । ग्यारहवे प्रतरमें जघन्य आयु सात अंश है और उत्कृष्ट आठ अंश है। बारहवे पाथडे में जघन्य आयु सागरके आठ अंश है और उत्कृष्ट आयु नौ अंश है। तेरहवे पाथडे में उत्कृष्ट आयुष्य एकसागरोपम है और जघन्य आयु सागरके नौ अंश प्रमाण निश्चित हैं ।। ५७-६२ ॥ आगेके प्रतरके भागोंमें एक एक भाग अधिक वृद्धि होती है उसको उत्कृष्ट कहना चाहिये । तथा पूर्व पूर्वभाग मात्र आयु जो आगेके प्रतरमें होती हैं उसको जघन्य आयु कहते है।६३॥ उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिका अन्तर निकालकर प्रतरोंकी संख्यासे उसे भाजित कर पहली पृथ्वीकी उत्कृष्ट स्थितिमें जोडनेपर दूसरी पृथ्वीके प्रथम पटलकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । ६३॥ (नारकियोंके लेश्यादिक अशुभतरही हैं ऐसा कथन । )- उन सात नरकोंमें वे नारकी हमेशा अशुभतर लेश्या, अशुभतर देह, अशुभतर वेदना, अशुभतर स्वभाव और अशुभतर विक्रिया आदिक दोषवाले होते हैं । स्पष्टीकरण- मध्यलोकमें तिथंचोंमें जो अशुभ लेश्या, देह, वेदनादिक होते हैं, उससे अधिक अशुभलेश्या, देह, वेदनादिक नारकियोंके होते हैं; ऐसा अभिप्राय व्यक्त करनेके लिये 'अशुभतर' कहा है । अथवा रत्नप्रभादि उपरके नरकोंकी अपेक्षा नीचेके नरकोंमें उत्तरोत्तर लेश्या, देह, वेदना परिणामादिक अशुभतर अशुभतर होते है ।। ६४ ॥ पहले और दूसरे नरकमें सर्व नारकी कापोत लेश्यावाले तथा दुर्भावना युक्त और दुःखोंसे पीडित और वहांके प्रतिस्थानमें वे दुःखसे पचते रहते हैं। तथा वालुकाप्रभा नरकके उपरिष्ट भागमें उत्तम कापोत लेश्या है और नीचेके विभागमें नीललेश्या हैं। इन नारकियोंके भाव मिथ्यात्वसे चंचल होते हैं ।। ६५-६६ ॥ १ आ. तत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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