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________________ १४८) सिद्धान्तसारः (६. ४० धनूंषि सप्त जायन्ते त्रयो हस्ताः षडगुलैः । समं त्रयोदशे मानं नारकाणां समुच्छ्यः ॥ ४० द्वितीयायां स एव स्यादुत्सेधः प्रथमे महान् । प्रतरे वर्धते तस्माधिकरैस्त्र्यङगुलाधिकम् ॥ ४१ एकादशे धनूंष्याहुः पञ्चाधिकतया दश । हस्तद्वयं शरीरस्य मानं सद्विदशाङगुलम् ॥ ४२ तृतीयायां स एव स्यात्प्रथमे प्रतरे महान् । उत्सेधो यो द्वितीयायां कथितश्चान्तिमे बुधैः ॥४३ सहार्ड्कोनविंशत्या सप्तहस्तैः प्रकीर्तिता। वृद्धिस्ततः परा यावन्नवमप्रतरं भवेत् ॥ ४४ उत्सेधं च धनूंष्याहुरेकत्रिंशत्कराधिकम् । नवमे च तृतीयायां प्रतरे प्रज्ञयान्विताः ॥ ४५ चतुर्थ्यां हि स एव स्यात्प्रथमे प्रतरे ततः । वृद्धिर्धनूंषि पञ्चैव सा विंशत्यङगुलैः सह ॥ ४६ उत्सेधो नारकाणां च हस्तद्वयसमन्वितः । स्यात्स एव हि पञ्चम्यमादिमे प्रतरे ततः॥ ४७ सप्तमे प्रतरे तत्स्यावाषष्टिधनुषां मतः । दश पंच च चापानि साधहस्तद्वयं पुनः ॥ ४८ प्रतरे प्रतरे वृद्धिर्यावत्पञ्चमकं भवेत् । पञ्चमे च शतं तस्माद्धनुषां पञ्चविंशतिः ॥ ४९ (दूसरे नरकमें नारकीके देहकी ऊंचाई।)- दूसरी पृथ्वीमें - शर्कराप्रभामें पहले प्रस्तरमें वही उत्सेध है अर्थात् सात धनुष्य तीन हाथ और सहा अंगुलप्रमाण नारकियोंका देह ऊंचा है। तदनंतर प्रत्येक प्रस्तरमें तीन हाथके ऊपर तीन अंगुल वृद्धि होती है। ऐसी यह वृद्धि ग्यारहवे प्रस्तारतक होती जाती है । ग्यारहवे प्रस्तारमें पंद्रह धनुष्य दो हाथ बारह अंगुलका शरीर ऊंचा रहता है ।। ४१-४२॥ ( तीसरे नरकमें नारक देहकी ऊंचाई। )- दूसरे नरकके अन्तिम पटलमें जो नारकियोंके शरीरका उत्सेध विद्वानोंने कहा है, वही तीसरे नरकके प्रथम प्रतरके नारकियोंके शरीरका उत्सेध है । तदनंतर आगे प्रत्येक प्रतरमें वृद्धि होती जाती है वह तीसरे नरकके नवमें प्रतरतक होती रहती है। तीसरे नरकके नवमें प्रतरतक सात हाथ साडे उन्नीस अंगुलप्रमाण वृद्धि होती है। जो प्रज्ञासे युक्त है ऐसे गणधर देवने तीसरे नरकके नवमें पाथडे में नारकियोंका शरीर इकत्तीस धनुष्य एक हाथ ऊंचा कहा है ॥ ४३-४५ ॥ ( चौथे और पांचवे नरकके नारकियोंके देहका उत्सेध।)- चौथे नरकके पहले प्रतरमें वही शरीरोत्सेध है । उसके अनंतर पांच धनुष्य और बीस अंगुलप्रमाण वृद्धि प्रत्येक प्रतरमें होती हुई पांचवे नरकपृथ्वीके पहले प्रतरमें नारकियोंका शरीरोत्सेध वही है-पूर्वोक्त है। तदनन्तर आगेके प्रतरोंमें शरीरोत्सेध बढता हुआ सातवे प्रतरमें बासष्ट धनुष्य हुआ है। तदनंतर प्रत्येक प्रतरमें पंद्रह धनुष्य अढाई हाथकी वृद्धि होती हैं और पांचवे प्रतरमें एकसौ पच्चीस धनुष्य प्रमाण शरीरका उत्सेध होता है । अर्थात् पांचवे नरकके अन्तिम पटलमें नारकियोंका शरीरोत्सेध एकसौ पच्चीस धनुष्य प्रमाणका होता है ।। ४६-४९ ॥ १ आ. त्र्यमुलाधिकः २ आ. नवमेऽनु तृतीयायाः . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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