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________________ १४६) सिद्धान्तसारः (६. २१ योजनानां सहस्रकबाहुल्या मन्दराश्रया' । चित्रा मही तया सार्द्धमधोभागो व्यवस्थितः ॥२१ खरभागो भवेत्तावद्योजनानां हि षोडश । सहस्राणि स बाहुल्याद्वहुधा कौतुकावहः ॥२२ युग्मम् तदधस्तात्स विज्ञेयः पङ्कभागोऽपि विस्तरात् । योजनानां सहस्राण्यशीतिश्च चतुरुत्तरा ॥ २३ सहस्राशीतिबाहुल्यस्ततोऽब्बहुल इत्यपि । भागो भवति भूरीणां नारकाणां समाश्रयः ॥ २४ एवं रत्नप्रभाभूमिर्भागत्रयविभाजिता । सहस्राशीतिलकबाहुल्या बहुदुःखदा ॥ २५ प्रथमं भावनानां हि भवनानि धनानि च । नवानां सन्ति साधूनि विचित्राकारधारिणाम् ॥२६ तथा सप्तप्रकारेण व्यन्तराणां सुशोभनाः । आवासाः सन्ति तत्रैव खरभागे विभागतः ॥ २७ पङ्कभागे पुनर्भव्यगृहाग्यसुररक्षसाम् । तृतीये नरकाः सन्ति नारकाणां समाश्रयाः ॥ २८ पर्यधः परित्यज्य पटलानि भवन्ति च ॥ २९ योजना चित्रा नामक पृथ्वी जो कि मंदरपर्वतको आधारभूत है वह एक हजार योजनप्रमाणकी है। उसके नीचे उसके साथ अधोभाग व्यवस्थित हैं। उसके नीचे खरभाग है। वह मोटाईसे सोलह हजार योजनप्रमाणका है और अनेक प्रकारोंसे कौतुकयुक्त है ।। २१-२२ ॥ खरभागके नीचे पंकभागभी जानने योग्य है। उसका विस्तार चौरासी हजार योजनोंका है । उसकेभी नीचे अब्बहुलभाग है । उसका विस्तारका प्रमाण अस्सी हजार योजनोंका है । वह बहुत नारकी जीवोंका आश्रयस्थान है ॥ २३-२४ ।। 'इस प्रकार रत्नप्रभाभूमि खरभाग, पङ्कभाग और अब्बहुलभाग ऐसे तीन विभागोंसे विभक्त हुई है। उसकी मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजनप्रमाणकी है और अतिशय दुःखदायक है ।। २५ ॥ पहले खरभागमें विचित्र आकार धारण करनेवाले नौ प्रकारके भवनवासियोंके दढ और संदर रत्नमय भवन हैं। अर्थात नाग, विद्यत, सूपर्ण, अग्नि, वात, स्तनित, उदधि, द्वीप और दिक ऐसे नौ प्रकारके भवनवासियोंके स्थान हैं। तथा उसी खरभागमें सात प्रकारके व्यंतर सुंदर आवास विमागक्रमसे हैं। किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, भूत और पिशाच्च ऐसे सप्त व्यंतरोंके निवास हैं। खरपृथ्वीभागके ऊपरके हजार योजनोंका और नीचेके हजार योजनोंका प्रदेश छोडकर बीचके चौदह हजार योजनोंके विस्तृत प्रदेशमें असुर और राक्षसोंको छोडकर भवनवासी और व्यंतरोंके निवास हैं । पङ्कभागमें पुनः असुर और राक्षसोंके भव्य गृह हैं। तीसरे अब्बहुल विभागमें नारकियोंके निवासस्थान अर्थात् नरक बिल हैं ॥ २६-२७-२८ ॥ । संपूर्ण नरकभूमियोंमें ऊपरका और नीचेका हजार हजार योजनोंका प्रदेश छोडकर मध्य १ आ. मन्दरोऽस्तु यः २ आ भागे. ३ आ. बाहल्यः ४ आ. सप्तप्रकाराणां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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