________________
-६. २०)
सिद्धान्तसारः
(१४५
द्वितीयायां पुनस्तानि विद्यन्ते पञ्चविंशतिः। तथा पञ्चदश प्राज्ञैस्तृतीयायां मतानि च ॥११ दशलक्षाणि विद्यन्ते चतुर्थ्यां नरकावनौ । नरकाणि निमेषाद्धमपि सौख्यातिगानि च ॥ १२ पञ्चम्यां त्रीणि लक्षाणि षष्ठयां पुनरुदीरितम्। पञ्चोनमेकं लक्षं च सप्तम्यां पञ्चकं पुनः॥१३ अथाशीतिसहस्रश्च लक्षमेकमुदीरितम् । बाहुल्यं बहुधा रत्नप्रभायां जिननायकैः ॥ १४ द्वात्रिंशच्च सहस्राणि पृत्थुत्वं योजनानि तु । द्वितीयायां मतं प्राज्ञैः प्रगताशेषकल्मषैः ॥ १५ योजनानां सहस्राणि बाहुल्यं ह्यष्टविंशतिः । तृतीयायां भवन्त्यत्र' श्वभ्रभूमेविनिन्दितम् ॥१६ विस्तारः कथितस्तज्ज्ञैश्चतुर्थ्यां नरकक्षितौ । योजनानां सहस्राणि चतुर्विंशतिरित्ययम् ॥ १७ पञ्चम्यां विशतिः पिण्डः षष्ठयां षोडश वा पुनः। अष्टौ च सप्तमपृथ्व्यां योजनानां सहस्रकाः॥१८ पश्चम्या नरकभूमेश्च विंशतिर्योजनं मतम् । षष्ठयां षोडशसंख्या च सप्तम्यां योजनाष्टकम् ॥१९ तिर्यग्विस्तार एवासामेकरज्जुप्रमाणतः । मध्यस्थो लोकमानोऽत्र असनालिबहिर्भवेत् ॥ २०
( नरकभूमियोंमें बिलसंख्या।)- जो अत्यंत दीन है ऐसे नारकियोंके महापापोंसे उत्पन्न मानो अनेक फल, ऐसे तीस लाख बिल पहले नरकमें हैं। दूसरे नरकमें पच्चीस लाख बिल हैं। तिसरे नरकमें पंद्रह लाख बिल हैं। चौथे नरकमें दस लाख नरक बिल हैं। ये सर्व नरक बिल निमिषार्द्धभी सुखयुक्त नहीं हैं । अर्थात् हमेशा इन बिलोंमें नारकी दुःखही भोगते हैं। पांचवे नरकमें तीन लाख नरक बिल हैं। छठे नरकमें एक लाखमें पांच कमी अर्थात् निन्यानवे हजार नौसौ पिचानवे बिल हैं । पुनः सातवे नरकमें पांचही नरक बिल हैं ।। १०-१३ ॥
जिननायकोंने रत्नप्रभाका बाहुल्य-मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजनोंका कहा हैं ।। १४ ॥
जिनका संपूर्ण पाप नष्ट हो गया है ऐसे बुद्धिमानोंने दूसरे शर्कराप्रभानरककी मोटाई बत्तीस हजार योजन कही है ॥ १५ ॥
तिसरी निन्द्य नरकभूमि वालुकाप्रभाकी मोटाई अट्ठावीस हजार योजन है ।। १६ ।।
चतुर्थ नरक पङ्कप्रभाकी मोटाई तज्ज्ञ लोगोंने विस्तृत चौवीस हजार योजनकी कही है ।। १७ ॥
पांचवी नरकभूमीकी मोटाई बीस हजार योजनप्रमाणकी कही है। तथा छठी नरकभूमीकी मोटाई सोलह हजारकी कही है । और सातवी नरकभूमीकी मोटाई आठ हजार योजनोंकी कही है ॥ १८-१९ ॥
इन सात पृथ्वियोंका तिर्यग्विस्तार एक राजुप्रमाण है। यह लोग जिसके बीच में नाभिके समान त्रसनालि है और वह लोकप्रमाण अर्थात् चौदह राजुप्रमाण ऊंची है ।। २० ॥
२ आ. भवत्यत्र
१ आ. बाहल्यं S. S. 19
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org