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________________ षष्ठोऽध्यायः। नारकतिर्यङमानुष्यदेवगत्यादिभेदतः । चतुर्धा जायते जीवः संसारे सारजिते ॥१ आद्या रत्नप्रभानामा द्वितीया शर्कराप्रभा । वालुकादिप्रभाभूमिस्तृतीया बहुदुःखदा ॥२ पङ्कप्रभा चतुर्थी स्यात्पञ्चमी धूमसत्प्रभा । षष्ठी तमःप्रभा निद्याभिहिता' जिननायकैः ॥ ३ महातमःप्रभा घोरा घोरदुःखप्रदर्शिनी । सप्तमी पापिना दुःखानिमिता पापकर्मणा ॥ ४ एताश्च भूमयः सर्वा धनाम्बुवलयस्थिताः । घनाम्बुवलयं तद्धि घनवातप्रतिष्ठितम् ॥ ५ घनादिवलयं तावत्तनुवातव्यवस्थितम् । तदाकाशस्थितं तद्धि स्वप्रतिष्ठमुदीरितम् ॥६ वलयानि च पिण्डेन त्रीण्येतानि प्रमाणतः । प्रत्येक योजनानां हि सहस्राणि तु विंशतिः ॥ ७ मेरोराधार भूता स्यात्पथ्वी रत्नप्रभाभिधा । रज्ज्वन्तरालतिन्यस्ततोऽधोऽधः पराश्च षट् ॥ ८ ततोऽधस्ताद्धरा शून्यं रज्जुमानं सुदुस्तरम् । क्षेत्रमस्ति निगोतादिजीवस्थानमनेकधा ॥९ महापापभवानेकफलानीव हतात्मनाम् । त्रिंशन्नरकलक्षाणि विद्यन्ते प्रथमक्षितौ ॥ १० छटा अध्याय । इस सारवर्जित संसारमें नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ऐसी चार गतियोंके भेदसे यह जीव चार प्रकारका होता है ॥ १ ॥ ( नरकगतिके जीवोंका आधारभूत स्थान । )- पहिली रत्नप्रभा, दूसरी शर्कराप्रभा और अतिशय दुःख देनेवाली तीसरी वालुकाप्रभा नामक भूमि, चौथी पंकप्रभा, पांचवी धूमप्रभा तथा छठ्ठी तमःप्रभा भूमि है। जिननायकोंने वे भूमियाँ निद्य हैं ऐसा कहा है । घोर दुःखको देनेवाली प्राणियोंके पाप कर्मने दुःखसे निर्माण की गई सातवी महातमःप्रभा नामक नरक भूमि है। ये सातोंही भूमियाँ घनाम्बुवातवलयसे चारों तरफसे घिरी हुई हैं। घनाम्बुवातवलय घनवातके आधारसे रहा है, और धनवातवलय तनुवातवलयसे व्यवस्थित है। तथा वह तनुवातवलय आकाशमें है और आकाश स्वप्रतिष्ठित है- अपनेही आधारसे है अर्थात् वह आकाश स्वयं अपनेको आधारभी है तथा अपनेमें रहनेसे आधेयभी है ॥ २-६ ॥ (तीन वातवलयोंका विस्तार । )- तीन वातवलयोंमेंसे प्रत्येकका पिण्डप्रमाण बीस बीस हजार योजनोंका है । पहली रत्नप्रभा नामक पृथ्वी मेरूको आधारभूत है। तदनन्तर दूसरी, तीसरी आदि छह पृथ्वियाँ एक एक रज्जुके अन्तरालमें हैं। उसके नीचे पृथ्वीरहित एक रज्जुविस्तारके अवकाशमें सुदुस्तर ऐसा स्थान है, जो कि निगोद जीवोंका स्थान है और अनेक प्रकारका है ।। ७-९॥ १ आ. गदिता २ आ. प्राणिनां मन्ये निर्मिता पापकर्मणाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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