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________________ -५. १८२) सिद्धान्तसारः (१४३ कालस्यापेक्षया धर्मो नष्टः सर्वत्र सर्वथा। तं प्रकाशयतां किञ्चित् पक्षपातो भविष्यति ? ॥१७८ इति वाग्देवता जैनी दुष्षमाकालवतिनाम् । मां प्रलपन्तमित्युच्चविज्ञायोद्धरतुक्षणम् ॥ १७९ स्वरूपादिविभेदेन जीवतत्त्वं निरूपितम् । साम्प्रतं गतिभेदेन निगदामि यथागमम् ॥ १८० इति निगदितमेतज्जीवतत्त्वं विदित्वा । हृदि दधति पटिष्ठाः साधवो ये सुनिष्ठाः ॥ त इह निहतकर्मव्यापदानन्दरूपम् । पदमधिगतबोधाः प्रस्फुरन्तः सरन्ति ॥ १८१ धारयन्ति मुदितान्तरात्मकाः श्रीजिनेन्द्रमतभेतदद्भुतम् । ये त एव कलयावलम्बिनो नापरे जगति जाड्यसङ्गताः ॥ १८२ इति श्रीसिद्धान्तसारसड़ग्रहे पण्डिताचार्यनरेन्द्रसेनविरचिते जीवतत्त्वप्ररूपणः पञ्चमः परिच्छेदः ।। कालकी अपेक्षासे सर्वत्र सर्वथा सर्व प्रकारसे धर्म नष्ट हुआ है। परंतु उसको प्रगट करनेवालोंके विषयमें कुछ पक्षपात-प्रेम उत्पन्न होता है। इसलिये जिनेश्वरके मुखकमलसे निकली हुई वाग्देवता दुष्षमाकालमें उत्पन्न हुए लोगोंको धर्मका स्वरूप कहनेवाले मुझको जानकर शीघ्र मेरा उद्धार करें ।। १७८-१७९ ॥ स्वरूपादिभेदोंसे मैंने जीवतत्त्वका निरूपण किया है। अब मैं जिनागमानुसार गति भेदोंसे- नारकी, मनुष्य, देव, पशु ऐसी चार गतियोंकी अपेक्षासे जीवतत्त्वका वर्णन करूंगा ॥१८० इस प्रकार कहा हुआ जीवका स्वरूप जानकर जो अतिशय चतुर और मधुरभाषी भले साधु हृदयमें धारण करते हैं वे कर्मजन्य आपत्तियोंको नष्ट करनेवाले और आनंदरूप-अनन्तसुख रूप पदको सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति करके वृद्धिंगत होते हुए प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥ जिनका अंतरात्मा आनंदित हुआ है ऐसे विद्वान् इस आश्चर्यकारक जिनेश्वरके मतको धारण करते हैं। वेही कलाके अवलम्बी हैं अर्थात् श्रेष्ठ ज्ञानी है परंतु जिन्होंने जिनमतको धारण नहीं किया है ऐसे अन्यलोग जाड्यसे संगत हैं-अज्ञानी हैं ।। १८२ ।। पण्डिताचार्य नरेन्द्रसेन विरचित श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहमें जीवतत्त्वका वर्णन करनेवाला यह पांचवा अध्याय समाप्त हुआ। ५ आ. कुशला १ आ. पक्षमात्रम् २ आ. मत्युच्च्यः ३ आ. क्षणात् ४ आ. शयाः ६ आ. इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहे आचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते पञ्चमः परिच्छेद: समाप्तः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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