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सिद्धान्तसारः
(५. १७१
सुवर्णानुगता वर्णा यथा पञ्चदशप्रमाः । लोके तथात्र विज्ञेया गुणाश्चैते चतुर्दश ॥ १७१ जपापुष्पादिसाचिव्याद्यः स्वभावः प्रजायते । स्फटिकादौ तथा जीवे लेश्या स्यात्कर्मयोगतः ॥१७२ कृष्णा नीला च कापोता पीता पद्मा तथा पुनः। शुक्ला च षड़विधा लेश्या जीवेऽभाणि विचक्षणः॥ जीवतत्त्वमिदं तावद्युक्तं वाऽयुक्तमेव वा । किञ्चिदागमतो ज्ञात्वा भणितं यन्मया पुनः ॥ १७४ श्रीजिनेन्द्रमतं पूर्वसरिसर्यप्रकाशितम । तत्खद्योतनिभेनैतत्कि मया बत भाष्यते ॥ १७५ दुष्षमाकालयोगेन सम्यग्ज्ञानविजितैः । सर्वत्र संशयानैस्तन्मादृशः किं निगद्यते ॥ १७६ केवलं तत्त्वविज्ञानलिप्सालुब्धोहमूच्चकैः । दरिद्रोऽपि हि किं लोके सौराज्यं नाभिवाञ्छति ॥१७७
... जैसै सुवर्णमें पंदरह वर्ण-भेद दिखते हैं वैसे इस जगतमें चौदह गुणस्थान होते हैं । जैसे अधिक वर्णमें उत्तरोत्तर शुद्धता बढती है और पंदरहवे वर्णमें सोना पूर्ण प्रायः शुद्ध होता है वैसे इस गुणस्थानमें आत्माकी उत्तरोत्तर विशुद्धता होती होती चौदहवे गुणस्थानमें निर्मलता पूर्णप्राय होती हैं । १७१ ॥
___लेश्यावर्णन :- स्फटिकादिक पदार्थोंमें जैसे जपापुष्पादि पदार्थोंके सान्निध्यसे जो स्वभाव प्रगट होता है, वैसे जीवमें कर्मयोगसे लेश्या होती है। स्पष्टीकरण- ‘कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या' कषायके उदयसे जो मनवचनकी प्रवृत्ति होती है जिससे आत्माके प्रदेशोंमें कंप उत्पन्न होता है वह लेश्या है। इस लेश्याकेद्वारा जीव अपनेको पुण्य और पापसे लिप्त करता है । ऐसे लेश्याके आचार्यने छह भेद बताये हैं । वे इस प्रकार:: कृष्णा, नीला और कापोता, पीता, पद्मा और शुक्ला ऐसी छह लेश्यायें जीवमें चतुर सूरियोंने बताई है। स्पष्टीकरण- इनमें पहिली तीन लेश्यायें क्रमसे अशुभतम, अशुभतर और अशभ ऐसी हैं और पीत, पद्म तथा शक्ललेश्या क्रमसे शभ, शभतर और शभतम है। प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंधमेंसे कषायोदयसे स्थितिबंध और अनभागबंध होता है। तथा योगसे प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है। जहांपर कषायोदय नहीं होता है, वहां केवलयोगको उपचारसे लेश्या कहते हैं । यह भावलेश्याका स्वरूप समझना चाहिये ; क्योंकि, शरीरके रंगको द्रव्यलेश्या कहते हैं ।। १७२-१७३ ॥
यह जीवतत्त्व कुछ आगमको जानकर युक्त तथा अज्ञानसे कुछ अयुक्त मैने कहा है। यह जिनेन्द्रका मत पवित्र और आचार्यरूपी सूर्यसे प्रकाशित हुआ है। मैं तो जुगनूके समान हूं। जिनेन्द्रमतविषयमें मैं अधिक क्या कह सकता हूं ॥ १७४-१७५ ॥
मेरे सदृश लोग दुष्षमाकालके प्रभावसे सम्यग्ज्ञानरहित हो गये हैं और सर्वत्र संशययुक्त हुए हैं। इसलिए हम क्या कह सकते हैं । परंतु तत्त्वज्ञान प्राप्तिकी इच्छासे में अत्यन्त लुब्ध हुआ हूं। योग्यही है, कि इस जगतमें क्या दरिद्री मनुष्यभी उत्तम राज्यको नहीं चाहता है ? अर्थात् दरिद्रीकोभी जैसे राज्यप्राप्तिकी इच्छा होती है वैसे मुझे तत्त्वज्ञानकी तीव्र इच्छा हुई है ।।१७६ -९७७ ॥
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